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२८० : जैनदर्शन में आत्म-विचार
सिद्ध है कि मोक्ष में आत्मा के स्वाभाविक सुख का उच्छेद नहीं होता ।' आचार्य गुणरत्न ने भी षड्दर्शनसमुच्चय की टीका में कहा गया है कि 'जिस अवस्था में अतीन्द्रिय और बुद्धिग्राह्य आत्यन्तिक सुख की प्राप्ति होती है, वही मोक्ष है और यह पापी आत्माओं को प्राप्त नहीं होता । 13
अतः मोक्षावस्था में आत्मजन्य अतीन्द्रिय अनन्त सुख का अनुभव होता है ।
यह भी स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि संसार के विषयजन्य सुख की तरह मोक्ष का सुख, दुःख से युक्त नहीं है और न उससे रागबन्ध होता है। क्योंकि राग कर्मों के कारण होता है और मोक्ष में सम्पूर्ण कर्मों का क्षय होता है । अतः, मोक्षावस्था में सुख का उच्छेद नहीं होता । मोक्ष का सुख अनन्त, अपूर्व, अव्याबाध, अनुपम और अविनाशी होता है । ५
मोक्ष आनन्दैक स्वभाव की अभिव्यक्ति स्वरूप मात्र नहीं :
अद्वैत वेदान्त दर्शन की मान्यता है कि मुक्त होने पर जीव सच्चिदानन्द ब्रह्म में लीन हो जाता है और वह अलौकिक आनन्द की अनुभूति करता है । अतः आनन्द मात्र की अनुभूति होना ही मोक्ष है । न्याय-वैशेषिक, सांख्य योग, मीमांसा आदि दार्शनिकों की तरह वेदान्ती यह भी मानते हैं कि मोक्ष में ज्ञानादि का अभाव होता है । ६
जैन दार्शनिक वेदान्त की तरह यह मानते हैं कि मोक्ष आनन्द-स्वरूप है लेकिन, आनन्द को चिरूपता की तरह एकान्त रूप से नित्य मानना जैनों को मान्य नहीं है । क्योंकि चिद्रूपता भी एकान्तरूप से नित्य नहीं है । सभी वस्तुएँ न तो सर्वथा नित्य होती हैं और न सर्वथा अनित्य, किन्तु कथंचिद् नित्य और कथंचिद् अनित्य होती हैं । आचार्य हेमचन्द्र ने भी प्रदीप से आकाश
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१. स्याद्वादमञ्जरी : मल्लिषेण, का० १, ८, पृ० ६० ।
२. षड्दर्शनसमुच्चय, पृ० २८८ ।
३. गीता, ६।२१ ।
४. ( क ) स्याद्वादमञ्जरी, पृ० ७३-६४ । (ख) तत्त्वानुशासन, श्लोक २३७
३९, ४१ ।
५. धर्मशर्माभ्युदय २१ । १६५ ।
६. अनन्तसुखमेव मुक्तस्य न ज्ञानादिकमित्यानन्दैक
मोक्षः --- अष्टसहस्री, पृ० ६९ ।
ननु परमप्रकर्ष प्राप्त सुखस्वभावर्तव आत्मनो मोक्षः न तु ज्ञानादि स्वभावता, न्यायकुमुदचन्द्र, पृ० ८३१ ।
तत्र प्रमाणाभावात् । ७. प्रमेयकमलमार्तण्ड, परि० २, ३२० ।
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