SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 294
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बन्ध और मोक्ष : २७९ भोगार्थ जाना उसका स्वभाव ही है। यदि प्रकृति मोक्ष की स्थिति में पुरुष के पास पहुँच जाती है, तो उसे मोक्ष नहीं कहा जा सकता है। यदि वह मक्तास्मा के पास नहीं जाती है, तो इसका तात्पर्य होगा कि उसने अपना स्वभाव छोड़ दिया है। प्रकृति के स्वरूप में भेद मानने का तात्पर्य होगा प्रकृति का अनित्य होना, जो कि सांख्यों को मान्य नहीं है। यदि परिणामी होते हुए भी प्रकृति को नित्य माना जाए तो पुरुष को भी इसी प्रकार परिणामी होने से नित्य मानना चाहिए, क्योंकि पुरुष पहले के मुक्तस्वभाव को छोड़कर अमुक्त स्वभाव को धारण कर लेता है । अतः मुक्त से अमुक्त स्वभाव की तरह यह भी मान लेना चाहिए कि आत्मा सुखादि रूप में भी परिणत होता है। इस प्रकार, सिद्ध है कि मात्र चैतन्यस्वरूप में अवस्थान होना मोक्ष नहीं है। ___मोक्ष अत्यन्त सुखोच्छेद रूप नहीं है : भारतीय-दर्शन में यह विचारणीय है कि क्या मोक्ष अत्यन्त दुःखोच्छेद रूप है या सुखोच्छेद रूप या दोनों का एक साथ उच्छेद रूप, अर्थात्-मोक्ष में केवल दुःखों का विनाश होता है या सुख का विनाश होता है या सुख-दुःख दोनों का होता है ? हम पीछे विवेचन कर आये हैं कि इस विषय में सभी भारतीय दार्शनिक एकमत हैं कि मोक्ष में दुःख का अत्यन्त उच्छेद हो जाता है। किन्तु न्याय-वैशेषिक, प्रभाकर, सांख्य तथा बौद्ध दार्शनिक यह मानते हैं कि मोक्ष में दुःख की तरह सुख का भी अत्यन्त उच्छेद हो जाता है। इसके विपरीत वेदान्ती दर्शनिक कुमारिलभट्ट तथा जैनदार्शनिक मोक्ष में आत्मीय अतीन्द्रिय सुख का उच्छेद होना नहीं मानते हैं । मोक्ष में आत्मिक, अनन्तसुख का अनुभव होता है : जैन दार्शनिकों का कथन है कि सुख दो प्रकार का होता है :- इन्द्रियज और आत्मज अथवा वैभाविक (आगन्तुक) और स्वाभाविक । इन्द्रियजन्य सुख का मोक्षावस्था में विनाश हो जाता है, क्योंकि उस समय इन्द्रिय शरीरादि का अभाव हो जाता है। अतः इन्द्रियजन्य सुख मोक्षावस्था में नहीं होता है। किंतु मोक्ष में आत्मिक सुख का अभाव मानना ठीक नहीं, क्योंकि आत्मा सुखरूप है और अपने स्वरूप में स्थित हो जाना ही मोक्ष है। यदि आत्मा का स्वभाव ही नष्ट हो जाएगा, तो क्या बचेगा ? अतः १. न्यायकुमुदचंद्र : प्रभाचन्द्र, पु० ८२३ । २. वही । और भी देखें-ष० द० स० : टीका-गुणरत्न, पृ० २९३-९४ । ३. दुःखात्यन्त समुच्छेदे सति प्रागात्मवर्तितः । सुखस्य मनसा मुक्तिर्मुक्तिरुक्ता कुमारिलैः ।। -भारतीय दर्शन : डा० बलदेव उपाध्याय, पृ० ६१२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy