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________________ २७८ : जैनदर्शन में आत्म-विचार • जैन दार्शनिकों ने सांख्य के उपर्युक्त मोक्ष-स्वरूप पर विमर्श करते हुए कहा है कि सिर्फ चैतन्य-स्वरूप में अवस्थान होना मोक्ष नहीं है, क्योंकि सिर्फ चैतन्य ही आत्मा का स्वरूप नहीं है। आत्मा अनन्तज्ञानादि स्वरूप है, इसलिए अपने अनन्तज्ञानादि 'चैतन्य-विशेष' में अवस्थित होना मोक्ष कहलाता है।' यदि पुरुष को अनन्तज्ञानादि स्वरूप न माना जाए, तो आत्मा सर्वज्ञ नहीं हो सकेगी। प्रकृति को आकाश की तरह अचेतन होने के कारण सर्वज्ञ मानना असंगत है। दूसरी बात यह है कि ज्ञानादि को भी सर्वज्ञ मानना ठीक नहीं है, क्योंकि अनुभव की तरह ज्ञानादि भी उत्पत्ति-विनाशयुक्त होने से आत्मा का स्वभाव है । ज्ञानादि अनुभव की तरह स्वसंवेद्य हैं । विद्यानन्द ने 'अष्टसहस्री' में कहा है कि ज्ञानादि अनुभव की तरह आत्मा के स्वभाव हैं और सुख भी चैतन्य होने से ज्ञानादि की तरह आत्मा का स्वभाव है। अतः, सिद्ध है कि चैतन्य में अवस्थान होना आत्मा का मोक्ष नहीं है। सांख्यमत में भेद-विज्ञान सम्भव नहीं है : सांख्य-मत में भेद-विज्ञान भी सिद्ध नहीं होता है, क्योंकि विवेक ज्ञान में जिज्ञासा होती है कि यह विवेक ज्ञान किसको होता है, प्रकृति को अथवा पुरुष को ? प्रकृति ज्ञान से शून्य होने के कारण उसे विवेक हो नहीं सकता। पुरुष को भी विवेक नहीं हो सकता है, क्योंकि वह अज्ञान समूह में स्थित रहता है, फलतः वह स्वयं अज्ञानी है। इसके अतिरिक्त एक बात यह भी है कि प्रकृति जड़ होने के कारण यह नहीं समझ सकती है कि पुरुष ने मुझे कुरूप समझ लिया है, अतः प्रकृति पुरुष से अलग नहीं हो सकती है। प्रकृति को मुक्त पुरुष से अलग होने में दोष : एक बात यह है कि यदि पुरुष ने प्रकृति को कुरूप समझ भी लिया है, तो भी उसे संसारी स्त्री की तरह मुक्त पुरुष के पास भी भोगार्थ पहुँच जाना चाहिए, क्योंकि पुरुष के पास १. प्रमेयकमलमार्तण्ड, ५० २, पृ० ३२७ । (ख) अष्टसहस्त्री, पृ० ६६ । २. वही। ३. अचेतना ज्ञानादय उत्पत्तिमत्वाद् घटादिवत्--, न हेतोरनुभवेनाने कान्तात् ।---प्रमेयकमलमार्तण्ड, १० ३२७ । ४. अष्टसहस्री, पृ० ६७ । ५. (क) न्यायकुमुदचन्द्र, पृ० ८२१ । (ख) षड्दर्शनसमुच्चय, पृ० २९२ । ६. न्यायकुमुदचन्द्र, पृ० ८२२। ७. वही। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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