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________________ बन्ध और मोक्ष : २७७ आत्मा से उत्पन्न होने वाले बुद्धि आदि गुणों का' ? यदि यह माना जाय कि मोक्ष में इन्द्रियों से उत्पन्न बुद्धि आदि गुणों का विनाश हो जाता है तो सिद्धसाधन नामक दोष आता है, क्योंकि जैन सिद्धान्त में भी यह माना गया है कि मोक्ष में इन्द्रियज ज्ञानादि सन्तान का उच्छेद हो जाता है । २ अतीन्द्रिय गुणों के उच्छेद से आत्मा की जड़वत्ता : यदि न्याय-वैशेषिक यह मानते हैं कि आत्मा जन्य अतीन्द्रिय गुणों का अत्यन्त उच्छेद हो जाता है, तो इनका यह मन्तव्य भी ठीक नहीं है, क्योंकि अतीन्द्रिय बुद्धि आदि गुणों के उच्छेद होने से आत्मा पत्थर के समान हो जाएगा । अतः, इस प्रकार सर्वविनाशी निरर्थक मोक्ष के लिए मोक्षार्थी तपश्चरण, योग साधना, समाधि वगैरह क्यों करेंगे ? न्याय-वैशेषिकों के मोक्ष स्वरूप से खिन्न हो कर विचारकों ने ऐसी मुक्ति पाने की अपेक्षा वन में गीदड़ बन कर रहना स्वीकार किया है 13 अत:, सिद्ध है कि बुद्धि आदि गुणों के उच्छेद रूप मोक्ष का स्वरूप मानना ठीक नहीं है । शुद्ध चैतन्यमात्र में आत्मा का अवस्थान होना मोक्ष नहीं : सांख्य दार्शनिक मानते हैं कि प्रकृति और पुरुष को एक मानना अज्ञान है और इसी अज्ञान का विनाश हो जाने पर पुरुष भेद-विज्ञान से अपने को प्रकृति से भिन्न मानने लगता है । इस तरह पुरुष अपने स्वाभाविक शुद्ध चैतन्य स्वरूप में स्थित हो जाता है, इसी का नाम मोक्ष है । सांख्य भी न्याय-वैशेषिक की तरह यह मानते हैं कि मोक्ष में आत्मा या पुरुष में दुःख-सुख और ज्ञानादि नहीं रहते हैं ।" क्योंकि सुख-दुःख आदि सांख्य-मत में प्रकृति का कार्य है, अतः प्रकृति के अलग हो जाने से सुखादि का भी विनाश हो जाता है । न्याय-वैशेषिकों की अपेक्षा सांख्यों के मोक्ष-स्वरूप की यह विशेषता है कि न्याय-वैशेषिक मोक्ष में आत्मा के चैतन्य का विनाश मानता है, जब कि सांख्य चैतन्य स्वरूप में पुरुष के अवस्थित होने को मोक्ष मानता है । १. न्याय कुमुदचन्द्र, पृ०८ २७ । २. प्रमेयकमलमार्तण्ड, पृ० ३१८ | ३. वरं वृन्दावने वास:, यूगालेश्च सहोषितम् । न तु वैशेषिकींमुक्तिं, गौतमो गन्तुमिच्छति ॥ — षड्दर्शनसमुच्चय, पृ० २८७ । ४. ( क ) अष्टसहस्री विद्यानन्दि, पृ० ६६ । (ख) स्याद्वादमञ्जरी, का० १५, १४१ । (ग) प्रमेयकमलमार्तण्ड : परि० २, पृ० ३१६ । पृ० ५. ( क ) सांख्यकारिका, ६५-६६ । (ख) सांख्यसूत्र प्रवचनभाष्य ६९, — एवं ६।५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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