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________________ २७० : जैनदर्शन में आत्म-विचार १. पूर्वप्रयोगाद्, अविरुद्ध कुलालचक्रवत् : जिस प्रकार कुम्भकार अपने चक्के को डण्डे से घुमाने के बाद डण्डा हटा लेता है, फिर भी पुराने संस्कारों के कारण चक्का घूमता रहता है, उसी प्रकार संसारी जीव ने मुक्त होने के पहले मुक्ति के लिए अनेक बार प्रणिधान और प्रयत्न किये थे । अतः मुक्त होने पर प्रणिधान और प्रयत्न न होने पर भी पहले के संस्कारों के वर्तमान होने से मुक्त जीव ऊर्ध्वगमन करता है । अतः ऊर्ध्वगमन का एक कारण पुराने संस्कारों का होना ही है । २. असंगत्वाद्, व्यपगत लेपालाम्बुवत् : मुक्त जीव के ऊर्ध्वगमन का दूसरा कारण कर्मों के भार का नष्ट होना है । जिस प्रकार मिट्टी से लिप्त तुम्बी पानी में मिट्टी के भार के कारण डूबी रहती है, उसी प्रकार कर्मों के भार के कारण जीव दबा रहता है । तुम्बी के ऊपर लिप्त मिट्टी जब पूर्णतया पानी में घुल जाती है, तब वह तुम्बी पानी के ऊपर आ जाती है, उसी प्रकार कर्मों के नष्ट होने से जीव ऊर्ध्वगमन करता है । ३. बन्धच्छेदात्, एरण्डबीजवत् : एरण्ड के बीज के ऊपर चढ़े हुए छिलके के फटने पर एरण्ड का बीज ऊपर की ओर जाता है, उसी तरह कर्म बन्धन के कट जाने पर मुक्त जीव ऊर्ध्वगमन करता है । ४. तथागतिपरिणामाच्च, अग्निशिखावच्च : जिस प्रकार अग्नि की शिखा स्वभावतः ऊपर की ओर उठती है, उसी प्रकार जीव का स्वभाव ऊर्ध्वगमन करना होता है । जब तक कर्म जीव को इस स्वाभाविक शक्ति को रोके रहता है, तब तक वह पूर्णतया ऊर्ध्वगमन नहीं कर पाता है, मगर जीव की इस स्वाभाविक शक्ति को रोकने वाले कर्मों के नष्ट होने पर जीव ऊर्ध्वगमन करता है । व्याख्याप्रज्ञप्ति ज्ञानार्णव, धर्मशर्माभ्युदय आदि में भी जीव के ऊर्ध्वगमन के उपर्युक्त हेतु उपलब्ध हैं ।" मुक्त जीव लोकान्त तक ही जाता है : मुक्त जीव ऊर्ध्वगमन करता है, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि मुक्त जीव निरन्तर ऊर्ध्वगमन ही करता रहता है, जैसा कि मांडलिक - मतावलम्बी मानते हैं । मुक्त जीव लोक के अंतिम भाग तक ही ऊर्ध्वगमन करता है, इससे आगे वह नहीं जाता है क्योंकि उसकी ર્ १. व्याख्याप्रज्ञप्ति, ७।१।२६५ । ज्ञानार्णव, ४२।५९ । धर्मशर्माभ्युदय, २१।१६३ । २. उत्तराध्ययन सूत्र, ३६।५६-५७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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