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________________ बन्ध और मोक्ष : २६९ सूखी मिट्टी के बर्तन की तरह मुक्त आत्मा में कर्म के अभाव से संकोच-विस्तार नहीं होता है।' मुक्त स्थान में मुक्त जीव के अवस्थान का अभाव : कुछ बौद्ध दार्शनिकों का मन्तव्य है कि मुक्त जीव जिस स्थान से मुक्त होता है, उसी स्थान पर अवस्थित रहता है, क्योंकि उसमें संकोच-विकास तथा गति के कारणों का अभाव होता है । अतः वह न तो किसी दिशा और विदिशा में गमन करता है और न ऊपर और न नीचे ही जाता है ।२ सांकल आदि से मुक्त हुए किसी प्राणी की तरह जीव मुक्त हुए स्थान पर ही अवस्थित रहता है । लेकिन जैन दार्शनिक उपर्युक्त मत से सहमत नहीं हैं। इनका मन्तव्य है कि मुक्तात्मा मुक्त हुए स्थान पर एक क्षण भी अवस्थित नहीं रहता है, बल्कि अपनी स्वाभाविक ऊर्ध्वगमन शक्ति के कारण ऊर्ध्वगमन करता है। कहा भी है-"लघु पांच अक्षरों का उच्चारण जितनी देर में होता है, उतने समय तक चौदहवें गुणस्थान में ठहर कर कर्मबन्धन से रहित होकर शुद्धात्मा स्वभाव से ऊर्ध्वगमन करती है।"५ यदि जीव का ऊर्ध्वगमन न मान कर उसे यथास्थान अवस्थित माना जाए, तो पुण्यात्माओं और पापात्माओं का स्वर्ग-नरक गमन सिद्ध नहीं हो सकेगा और परलोक भी असिद्ध हो जाएगा। अतः सिद्ध है कि देह त्याग के स्थान में आत्मा अवस्थित नहीं रहती है। मुक्त जीव के ऊर्ध्वगमन का कारण : जीव का कर्मक्षय और ऊर्ध्वगमन एक साथ होता है। शंका : मुक्त आत्मा का अधोगमन तथा तिर्यक-गमन क्यों नहीं होता है ? समाधान : जीव को अधोलोक तथा तिर्यक् दिशा में गति कराने वाला कारण कर्म होता है और उसका मुक्त जीव में अभाव होता है, इसलिए मुक्त जीव तिर्यक् या अधो दिशा में गमन करके स्वाभाविक गति से ऊर्ध्वगमन करता है।६ उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र में मुक्त जीव के ऊर्ध्वगमन के हेतुओं का दृष्टांत सहित उल्लेख किया है, जो निम्नांकित है : १. (क) द्रव्यसंग्रह टीका, १४, पृ० ३९ ।। (ख) परमात्मप्रकाश टी०, गा० ५४, पृ० ५२ । २. अश्वघोष-कृत सौन्दरानन्द । ३. सर्वार्थसिद्धि, १०४, पृ० ३६० । ४. तत्त्वार्थसूत्र, १०६ । ५. (क) ज्ञानार्णव, ४२१५९ । (ख) तत्त्वार्थसार, ८१३५ । ६. द्रव्यसंग्रह टीका, गा० १४ एवं ३७ । ७. तत्त्वार्थसूत्र, १०॥६-७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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