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२६८ : जेनदर्शन में आत्म-विचार
से उस जीव के शाश्वत उच्छेद, भव्य - अभव्य, शून्य- अशून्य, और विज्ञान अविज्ञान रूप भावों का अभाव हो जाएगा, जो अनुचित है । अतः मोक्ष में जीव का अभाव नहीं होता है ।
मुक्तात्मा का आकार: कुछ भारतीय दार्शनिकों का मन्तव्य है कि मुक्त आत्मा निराकार होती है, लेकिन जैन दार्शनिक उपर्युक्त मत से सहमत नहीं हैं ।' उनका मत है कि यद्यपि निश्चयनय की अपेक्षा मुक्त आत्मा निराकार होती है, क्योंकि वह इन्द्रियों से दिखलाई नहीं पड़ती है, लेकिन व्यवहारनय की अपेक्षा साकार होती है ।" मुक्तात्मा का आकार मुक्त हुए शरीर से किंचित् न्यून अर्थात् कुछ कम होता है । रे मुक्त जीव के अंतिम शरीर से कुछ कम होने का कारण यह है कि चरम-शरीर के नाक, कान, नाखून आदि कुछ अंगोपांग खोखले होते हैं, अर्थात् उनमें आत्मप्रदेश नहीं होते हैं । कहा भी है " शरीर के कुछ खोखले भागों में आत्म-प्रदेश नहीं होते हैं । मुक्तात्मा छिद्ररहित होने के कारण पहले शरीर से कुछ कम, मोमरहित साँचे के बीच के आकार की तरह अथवा छाया प्रतिबिम्ब की तरह, आकार वाली होती है ।"
मुक्त जीव सर्वलोक में व्याप्त नहीं होता है : मुक्त जोव सर्वलोकव्यापी नहीं होता है, क्योंकि सांसारिक जीव के संकोच - विस्तार का कारण शरीर नामकर्म होता है और उस कर्म का यहाँ सर्वथा अभाव होता है, अत : कारण के अभाव में कार्य नहीं हो सकता है ।'
प्रश्न : ढके हुए दीपक पर से आवरण के हटा लेने पर उसका प्रकाश फैल जाता है, उसी प्रकार शरीर के अभाव में सिद्धों की आत्मा लोकाकाश प्रमाण क्यों नहीं हो जाती है ?
उत्तर : यद्यपि दीपक में स्वभावतः प्रकाश का विस्तार रहता है, तथापि आवरण से ढका होता है । लेकिन जीव के प्रदेशों का विकसित होना स्वभाव नहीं है, बल्कि हेतुक है, इसलिए वह लोकाकाश में व्याप्त नहीं होता । अतः
१. सर्वार्थसिद्धि, १०४, पृ० ३६० ।
२. द्रव्यसंग्रह, टीका, गा० ५१, पृ० १९६ । (क) तिलोयपण्णत्ति ९।१०
३. तत्त्वानुशासन, पद्य २३२-२३३ ।
४. द्रव्यसंग्रह टीका, गाथा १४, पृ० ३८ ।
५. वही, गाथा ५१, पृ० १९६ । और भी देखें - तिलोयपण्णत्ति : यतिवृषभा
चार्य, ९।१६ ।
६. ( क ) सर्वार्थसिद्धि, १०४, पृ० ३६० (ख) तत्त्वार्थसार, ८/९-१६। ।
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