SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 281
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६६ : जैनदर्शन में आत्म-विचार युक्त होते हैं। धर्मस्थापना के लिए ईश्वर अवतार धारण करता है। इसके निराकरण के लिए सिद्ध को कृतकृत्य कहा गया है । मण्डली मत वाले मानते हैं कि मुक्त आत्मा सदैव ऊर्ध्व गमन करता रहता है, इस मत का खण्डन करने के लिए कहा है कि सिद्ध लोकाग्र भाग में रहते हैं। इन विशेषणों की विस्तृत मीमांसा आगे करेंगे। २. मोक्ष-स्वरूप और उसका विश्लेषण : (क) मोक्ष का अर्थ और स्वरूप : 'मोक्ष' का अर्थ है-मुक्त होना । संसारी आत्मा कर्मबन्ध से युक्त होता है। अतः आत्मा और बन्ध का अलग हो जाना मोक्ष है। मोक्ष शब्द 'मोक्ष आसने धातु से बना है, जिसका अर्थ छूटना या नष्ट होना होता है। अतः समस्त कर्मों का समूल आत्यन्तिक उच्छेद होना मोक्ष कहलाता है' । पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि में कहा भी है, "जब आत्मा कर्ममलकलंकरूपी शरीर को अपने से सर्वथा अलग कर देती है । तब उसके जो अचिन्त्य स्वाभाविक ज्ञानादि गुणरूप और अव्याबाध सुखरूप सर्वथा विलक्षण अवस्था उत्पन्न होती है, उसे मोक्ष कहते हैं।" अकलंकदेव ने तत्त्वार्थवार्तिक में एक उदाहरण द्वारा मोक्ष को समझाते हुए कहा है कि जिस प्रकार बन्धन में पड़ा हुआ प्राणी जंजीर आदि से छूट कर स्वतन्त्र होकर इच्छानुसार गमन करते हुए सुखी होता है, उसी प्रकार समस्त कर्म बन्धन के नष्ट हो जाने पर आत्मा स्वाधीन होकर अत्यधिक ज्ञानदर्शनरूप अनुपम सुख का अनुभव करता है। आचार्य वीरसेन ने भी यही कहा है।४ अकलंकदेव और विधा. नन्दी ने आत्मस्वरूप के लाभ होने को मोक्ष कहा है । जैन-दर्शन में कर्ममलों से मुक्त आत्मा को सिद्ध कहा गया है । कुन्दकुन्दाचार्य ने नियमसार में कहा है कि सिद्ध क्षायिक सम्यक्त्व, अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य, सूक्ष्मत्व, अवगाहनत्व, अगुरुलघुत्व और अव्याबाधत्व इन १. (ख) कृत्स्नकर्मवियोगलक्षणो मोक्षः । सर्वार्थसिद्धि, ११४ । (ख) स आत्यन्तिकः सर्वकर्मनिक्षेपो मोक्ष इत्युच्यते । -तत्त्वार्थवार्तिक, १।१।३७, पृ० १० । २. सर्वार्थसिद्धि, उत्थानिका, पृ० १ । ३. तत्त्वार्थवार्तिक, १।४।२७, पृ० १२ । ४. धवला, पु० १३, खं० ५, भा० ५, सू० ८२, पृ० ३४८ । ५. आत्मलाभ मोक्षः-सर्वार्थसिद्धि, ७।१९ । ६. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, १।१।४। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org :
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy