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________________ बन्ध और मोक्ष : २६५ नामक चौथा शुक्ल ध्यान होता है। आयुकर्म को नष्ट करके अयोगकेवली सदैव के लिए सांसारिक बन्धनों से मुक्त हो जाता है। उपर्युक्त चौदह गुणस्थानों के संक्षिप्त विवेचन से स्पष्ट है कि आत्मा उत्तरोत्तर विकास करती हुई चौदहवें गुणस्थान में अपने आयुकर्म का भी क्षय करके सिद्ध और मुक्त कहलाने लगती है । गोम्मटसार (जीवकाण्ड) में कहा भी है, "ज्ञानावरणादि अष्टकर्मों से रहित, शान्तिमय, भाव और द्रव्य कर्म रूपी रज से मुक्त, अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख, अनन्तवीर्य, अव्याबाधअवगाहन, सूक्ष्मत्व, अगुरुलघु अष्टगुणों से युक्त, कृतकृत्य और लोक के अग्रभाग में रहने वाले सिद्ध होते हैं'।" वीरसेन ने भी कहा है, "जिसने अष्टकर्मों का क्षय कर दिया है, बाह्य पदार्थों से जो निरपेक्ष है, अनन्त अनुपमेय स्वाभाविक निरबाध सुख का जो अनुभव कर रहा है, सम्पूर्ण गुणों से विहीन तथा सकल गुणों से युक्त है एवं जिनकी आत्मा का आकार मुक्त हुए शरीर से किंचित् न्यून है, जो परिग्रहरहित है और लोकाग्र में निवास करते हैं, वे सिद्ध कहलाते हैं।" सिद्धों के उपर्युक्त विशेषणों की व्याख्या करते हुए गोम्मटसार (जीवकांड) की टीका में कहा है कि सदाशिव सिद्धान्ती मानते हैं कि आत्मा सदैव कर्मों से रहित होती है, उनके इस सिद्धान्त का निराकरण करने के लिए कहा गया है कि मुक्तावस्था में ही आत्मा कर्मों से रहित होता है। सांख्य दार्शनिक मुक्त आत्मा को सुखस्वरूप नहीं मानते हैं, उनके इस मत का खंडन करने के लिए कहा गया है कि मुक्त आत्मा अनुपमेय स्वाभाविक सुख का अनुभव करता है । मस्करी मत वाले मुक्तात्मा का संसार में पुनः वापस आना मानते हैं, उनके इस कथन का निराकरण करने के लिए कहा गया है कि भाव और द्रव्य कर्मों के अभाव में संसार में जीवों का पुनरागमन नहीं होता है। यही कारण है कि सिद्ध को निरंजन कहा गया है। बौद्धों के क्षणिकवाद का खंडन करने के लिए सिद्ध को नित्य कहा गया है। न्यायवैशेषिक मुक्तात्मा को ज्ञानादि गुणों से शून्य होना मानते हैं, उनके खण्डन के लिए कहा है कि सिद्ध अष्टगुणों से १. गोम्मटसार, (जीवकाण्ड) गा० ६८। २. धवला, १११११, सूत्र २३, पृ० २०० । सदाशिवः सदाऽकर्मा सांख्यो मुक्तं सुखोज्झितम् । मस्करी किल मुक्तानां मन्यते पुनरागतिम् ।। क्षणिकं निगुणं चैव बुद्धो योगश्च मन्यते । कृतकृत्यं त्यमीशानो मण्डली चोर्ध्वगामिनम् ॥ -गोम्मटसार, (जीवकाण्ड) जीवप्रबोधिनी टीका, गा० ६८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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