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________________ २६४ : जैनदर्शन में आत्म-विचार १ हो जाती है । इस गुणस्थान की तुलना हम वैदिक दर्शनों में अभिमत जीवन्मुक्त व्यवस्था से कर सकते हैं । यही वह अवस्था है जिसमें तीर्थंकर जैन धर्म का प्रवर्तन करते हैं । सयोगकेवली के ज्ञायिकभाव े एवं सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति शुक्ल ध्यान होता है । अन्तर्मुहूर्त से कम आयु रहने पर सयोगकेवली ध्यानस्थ हो जाते हैं । १४. अयोगकेवली जिन चौदहवें गुणस्थान में आत्मा का चरम विकास हो जाता है । षट्खण्डागम की धवला टीका में वीरसेन ने कहा है कि जिसके मन, वचन और कायरूप योग नहीं होता है, वह अयोगकेवली कहलाता है। जो योग, रहित केवली और जिन होता है । वह अयोगकेवली जिन कहलाता है । अभयचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने भी गोम्मटसार ( जीवकाण्ड) की टीका मन्दप्रबोधिनी में तथा केशववर्णी ने जीवप्रबोधिनी में भी यही कहा है । घातिया कर्मों का अभाव तेरहवें गुणस्थान में रहता है, इस गुणस्थान में अघातिया कर्मों का भी क्षय हो जाता है । आत्मा का स्वाभाविक रूप इस गुणस्थान में चमकने लगता है । गोम्मटसार ( जीवकाण्ड) में कहा भी है, 'जो ( अठारह हजार" प्रकार के ) शील का स्वामी है, जिसके कर्मों के आगमन का आस्रवरूपी दरवाजा पूर्ण रूप से बन्द हो गया है अर्थात् सपूर्ण संवर से युक्त है, तपादि के द्वारा जिसके समस्त कर्मों की निर्जरा हो चुकी है, ऐसा काययोगरहित केवली अयोगकेवली कहलाता है । चौदहवें गुणस्थान में क्षायिकभाव एवं व्युपरत क्रियानिर्वति १. (क) तत्र भावमोक्ष, केवलज्ञानोत्पत्ति : जीवन्मुक्तोर्हत्पदमित्येकार्थ: । - पंचास्तिकाय तात्पर्यवृत्ति, टीका गा० १५०, पृ० २१६ । २. (क) प्रवचनसार, १ । ४५ । १।१।२९, पृ० १९१ एवं ( ख ) गोम्मटसार ( जीवकाण्ड), जीवप्रबोधिनी टीका, गा० ६३ । (ख) विस्तृत विवेचन के लिए द्रष्टव्य — धवला, १९९ । ३. न विद्यते योगो यस्य स भवत्योग : केवलमस्यास्तीति केवली । अयोगश्वासौ केवली च अयोगकेवली | धवला, १११११, सूत्र २२, पृ० १९२ । ४. (क) गोम्मटसार ( जीवकाण्ड), मन्दप्रबोधिनी टीका, गाथा ६५ । (ख) वही, जीवप्रबोधिनी टी०, गा० १० । शीलानां अष्टादशसहस्र संख्यानां ऐश्यं ईश्वरत्वं स्वामित्वं संप्राप्त: । - गोम्मटसार ( जीवकाण्ड), गा० ६५ । ६. सीलेसि संपत्तो, निरुद्धणिस्सेसआसओ जीवो । कम्मरयविमुक्ो गयजोगो केवली होदि ॥ - गोम्मटसार ( जीवकाण्ड), गा० ६५ । ५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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