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________________ बन्ध और मोक्ष : २६३ में भी बारहवें गुणस्थान का यही स्वरूप बतलाया है । षट्खंडागम में बारहवें गुणस्थान को क्षीणकषायछद्मस्थ कहा गया है ।' वीरसेन ने इसकी व्याख्या करते हुए कहा है, 'जिनकी कषाय क्षीण हो गयी है, उन्हें क्षीणकषाय कहते हैं । जो क्षीणकषाय होते हुए वीतराग होते हैं, उन्हें क्षीणकषाय वीतराग कहते हैं । जो ज्ञानावरण- दर्शनावरण में स्थित हैं, उन्हें छद्मस्थ कहते हैं । जो क्षीणकषाय वीतराग होते हुए छद्मस्थ होते हैं, वे क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ कहलाते हैं । " अभयचन्द्र चक्रवर्ती ने गोम्मटसार जीवकाण्ड की मन्दप्रबोधिनी टीका में कहा है कि यहाँ पर संसार के कारणभूत अन्तरंग और बहिरंग परिग्रह का सर्वथा अभाव होता है, इसलिये यह गुणस्थान निर्ग्रन्थ कहलाता है । १३. सयोगकेवली जिन : आत्मा की स्वाभाविक शक्ति का घात करने वाले समस्त घातिया कर्म - मोहनीय ( जिसका क्षय क्षपक श्रेणी में हो गया था), ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय के क्षय हो जाने से केवलज्ञान और केवलदर्शन के होने के कारण साधक केवली कहलाने लगता है । मन, वचन और काय सम्बन्धी योग सहित होना सयोग है । सयोग होते हुए जो केवली होते हैं, उन्हें परमागम में सयोगकेवली कहते हैं । घातिया कर्मों से रहित होने से ये जिन कहलाते हैं । इस प्रकार तेरहवें गुणस्थानवर्ती आत्मा को सयोगकेवली - जिन कहते हैं ।" इस गुणस्थानवर्ती आत्मा को परमात्मा भी कहते हैं, क्योंकि घातिया कर्मों के क्षय से यहाँ क्षायिक सम्यक्त्व, चारित्र, ज्ञान, दर्शन, दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य रूप नौ केवल लब्धियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। इसके अतिरिक्त इसे अरहंत, तीर्थंकर, परमेष्टि, भावमोक्ष एवं जीवन्मुक्त भी कहते है क्योंकि यहाँ अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य रूप अनन्तचतुष्टय की प्राप्ति १. षट्खण्डागम, १1१1१, सूत्र २० । २. धवला : १।१।१, सूत्र २०, पृ० १८९ । ३. ग्रथयंति रचयंति संसारकारणं कर्मबन्धमिति ग्रन्था परिग्रहा : मिथ्यात्वोदादय : अन्तरंगाश्चतुर्दश, बहिरंगाश्च क्षेत्रादयो दशतेमयो : निष्क्रांत : सर्वात्मना निर्वृत्तो निर्ग्रन्थ लक्षणसद्भावात् । गोम्मटसार ( जीवकाण्ड), प्रबोधिनी टीका, गाथा ६२ को टीका । ४. धवला : १ । १ । १, सूत्र २२, पृ० १९२ । ५. असहायणाणदंसणसहियो इति केवली हु जोगेण । जुत्तोत्ति सजोगिजिणो अणाइणिहणारिसे उत्तो ॥ - गोम्मटसार ( जीवकाण्ड), गा० ६४ । ६. वही, गा० ६३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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