SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 276
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बन्ध और मोक्ष : २६१ एक से ही (समान विशुद्धि को लिये हुए ही) परिणाम पाए जाते हैं तथा वे अत्यन्त निर्मल ध्यान रूपी अग्नि की शिखाओं में कर्म-वन को भस्म करने वाले होते हैं ।'' वीरसेन ने कहा है कि निवृत्ति का अर्थ व्यावृत्ति भी है । अतः जिन परिणामों की निवृत्ति अर्थात् व्यावृत्ति नहीं होती है ( कभी भी नहीं छूटते हैं ), उन्हे अनिवृत्ति कहते हैं । अनिवृत्तिकरण में प्रति समय ( एक-एक समय ) में एक-एक ही परिणाम होता है, क्योंकि इस गुणस्थान में एक समय में परिणामों के जघन्य और उत्कृष्ट भेद नहीं होते हैं । यहाँ क्रोध, मान, माया और वेद का समूल क्षय हो जाता है। अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण में भेद : __ (१) अपूर्वकरण में अनिवृत्तिकरण की भांति समान समयवर्ती जीवों के परिणामों में निवृत्तिरहित होने का कोई नियम नहीं है । (२) अपूर्वकरण के परिणाम में प्रतिसमय जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट भेद होते हैं किन्तु अनिवृत्तिकरण के परिणामों में इस प्रकार के भेद नहीं होते हैं ।" १०. सूक्ष्मसाम्पराय-गुणस्थान : सूक्ष्मसाम्पराय का अर्थ है-सूक्ष्म कषाय । जिस गुणस्थान में सूक्ष्म लोभ कषाय का सद्भाव होता है, वह सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान कहलाता है । आचार्य नेमिचन्द्र ने इसका स्वरूप प्रतिपादित करते हुए कहा है कि रंग से रंगे हुए वस्त्र को धोने के पश्चात् जिस प्रकार वस्त्र में सूक्ष्म लालिमा रहती है, उसी प्रकार अत्यन्त सूक्ष्मराग सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान में भी होता है । इस गुणस्थान के साधक सूक्ष्म कषाय का उपशमन करने के १. (क) गोम्मटसार (जीवकाण्ड), गा० ५६-५७ । (ख) वही, गाथा ९११-१२। (ग) षड्ण्डागम की धवला टीका, १११११, सूत्र १७, गाथा ११९-२० । २. अथवा निवृत्तिावृत्तिः, न विद्यते निवृत्तिर्येषां तेऽनिवृत्तयः । -धवला : १११।१, सूत्र १७, पृ० १८३ । ३. वही, ६.१, भा० ९१८, सूत्र ४, पृ० २२१ । ४. वही, १११११, सूत्र १७, पृ० १८३ । ५. जैनेन्द्रसिद्धान्तकोष, भाग २, पृ० १४ । ६. साम्परायः कषायः, -। तत्त्वार्थवार्तिक, ९।१।२१, पृ० ५९० । ७. सूक्ष्म साम्पराय सूक्ष्म संज्वलन लोभः । -गोम्मटसार (कर्मकाण्ड), जीवप्रबोधिनी, टीका : केशववर्णी, गाथा ३३९ । ८. धुवकोसुंभयवत्थं होदि जहा सुहुमरायसंजुत्तं । एवं सुहमकसाओ सुहुमसरागोत्ति णादश्वो ।-गोम्मटसार (जीवकाण्ड), गाथा ५८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy