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________________ २६० : जैनदर्शन में आत्म-विचार होते हैं, किन्तु एक समयवर्ती जीवों के सादृश्य और वैसादृश्य दोनों प्रकार के होते हैं।' २. इस गुणस्थान का काल अन्तर्मुहूर्त मात्र है। ____३. अपूर्वकरण में परिणाम की संख्या पहले अधः करण के परिणामों की अपेक्षा असंख्यात गुणी है। ये परिणाम उत्तरोत्तर प्रति समय समान रूप से बढ़ते रहते हैं। ४. इस गुणस्थान में साधक शेष चारित्र मोहनीय कर्म का क्षय या उपशम करने के लिए उद्धत होता है । ५. षट्खंडागम में कहा है कि मोहनीय कर्म का उपशमन करने वाला साधक उपशम श्रेणी पर अथवा मोहनीय कर्म का क्षय करने वाला साधक क्षपक श्रेणी पर आरोहण करता है । ६. उपशम श्रेणी पर आरोहण करने वाले साधक के औपशमिकभाव और क्षपक श्रेणी पर आरोहण करने वाले साधक के क्षायिक भाव होते हैं। ७. रत्नशेखरसूरि ने गुणस्थान क्रमारोह में कहा है कि यहाँ पर पृथक्त्व वितर्क नामक शुक्ल ध्यान होता है। ९. अनिवृत्तिकरणगुणस्थान : समान समयवर्ती जीवों के विशुद्ध परिणामों की भेदरहित वृत्ति अर्थात् निवृत्ति होती है। कहा भी है "अन्तर्मुहूर्त मात्र अनिवृत्तिकरण के काल में से किसी एक समय में रहने वाले अनेक जीवों में शरीर के आकार, वर्ण आदि तथा ज्ञानोपयोग आदि की अपेक्षा भेद होता है। जिन विशुद्ध परिणामों के द्वारा उनमें भेद नहीं होता है, वे अनिवृत्तिकरण परिणाम कहलाते हैं। उनके प्रत्येक समय में उत्तरोत्तर अनन्तगुणी विशुद्धि से बढ़ते हुए १. गोम्मटसार (जीवकाण्ड), गाथा ५२ । २. वही, गाथा ५३ । ३. वही, गाथा ५३ । ४. गाथा ५४ । ५. षट्खण्डागम, १११११, सूत्र १६ । ६.गुणस्थानक्रमारोह, ५१ । ७. (क) समानसमयावस्थितजीवपरिणामामां निर्भेदेन वृत्तिः निवत्तिः । -धवला : १११।१, सूत्र १७, पृ० १८३ । (ख) न विद्यते निवृत्तिः विशुद्धिपरिणामभेदो येषां ते अनिवत्तय इति-- गोम्मटसार (जीवकाण्ड), जीवप्रबोधिनी टीका, गाथा ५७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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