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________________ बन्ध और मोक्ष : २५९ (क) स्वस्थानाप्रमत्तसंयत : इसे निरतिशय अप्रमत्त भी कहते हैं, क्योंकि शरीर और आत्मा के भेद-विज्ञान तथा मोक्ष के कारणभूत ध्यान में लीन रहने पर भी स्वस्थानाप्रमत्त संयत उपशम या क्षपक श्रेणी पर आरोहण नहीं करता है।' यह साधक अप्रमत्तसंयत से प्रमत्तसंयत और प्रमत्तसंयत से अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में उतरता-चढ़ता रहता है । (ख) सातिशयाप्रमत्त : मोहनीय कर्म की इक्कीस प्रकृतियों-चार अप्रत्याख्यानी, चार प्रत्याख्यानी तथा चार संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ एवं ९ हास्यादि नो-कषाय-के उपशम या क्षय के कारणभूत आत्मा के तीन करण (विशुद्ध परिणाम)-अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण होते हैं । इनमें से श्रेणी का आरोहण करने वाला सातिशयाप्रमत्त प्रथम अधःकरण को ही करता है ।२ गोम्मटसार (जीवकाण्ड) में आचार्य नेमिचन्द्र ने इसकी निम्नांकित विशेषताएं प्रतिपादित की हैं : (१) अभिन्नसमय और भिन्नसमयवर्ती जीवों के परिणाम सदृश तथा विसदृश दोनों प्रकार के होते हैं । ऊपर और नीचे के समयवर्ती जीवों के परिणाम संख्या और विशुद्धि की अपेक्षा समान होते हैं । इसलिए इसे अधःप्रवृतकरण कहते हैं । (२) इस करण का काल अन्तर्मुहूर्त होता है । (३) इसमें असंख्यात लोकप्रमाण परिणाम होते हैं ।४। ८. अपूर्वकरण गुणस्थान : 'करण' का अर्थ है-परिणाम या भाव । जो विशुद्ध परिणाम पहले नहीं उत्पन्न हुए थे उनका उत्पन्न होना, अपूर्वकरण गुणस्थान है ।" इसकी कुछ विशेषताएं निम्नांकित हैं : १. अपूर्वकरण में भिन्न समयवर्ती जीवों के विशुद्ध परिणाम विसदृश ही १. गोम्मटसार (जीवकाण्ड), गाथा ४६ । २. वही, गाथा ४७ । ३. वही, गाथा ४८। ४. वही, गाथा ४९ । ५. (क) करणाः परिणामाः, न पूर्वाः अपूर्वाः। तेषु प्रविष्टा शुद्धिर्येषां ते अपूर्व करण प्रविष्ट शुद्धयः। - धवला, १११११, सूत्र १६, पृ० १८० । (ख) एदम्पि गुणठाणे विसरिससमयट्ठियेहिं जीवेहि ।। पुवमपत्ता जम्हा होति यपुवा हु परिणामा ।। -गोम्मटसार (जीवकाण्ड), गाथा ५१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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