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२५८ : जैनदर्शन में आत्म- विचार
में होता है । रत्नशेखरसूरि ने गुणस्थानक्रमारोह में कहा है कि पंचम गुणस्थान' में आर्त्तध्यान मंद तथा धर्मध्यान मध्यम होता है ।
६. प्रमत्तसंयत गुणस्थान : इस अवस्था तक आते-आते आत्मा के क्रोधादि संज्वलन कषाय और हास्यादि नो-कषायों को छोड़कर शेष समस्त मोहनीय कर्म का अभाव हो जाता है । प्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती जीव आगम में मुनि या महाव्रती कहलाता है, क्योंकि मुनि के मूल और उत्तर गुणों से प्रमत्तसंयत जीवयुक्त होता है? । प्रमत्तसंयत जीव के सकल संयम तो होता है किन्तु इसको दूषित करने वाले संज्वलन कषाय तथा नो-कषाय के उदय से उत्पन्न व्यक्त तथा अव्यक्त प्रमाद का सद्भाव होता है । छठे गुणस्थान में क्षायोपशमिक भाव के अलावा अन्य औदायिक आदि भाव नहीं होते हैं । इसका विशेष विवेचन धवला में आचार्य वीरसेन ने किया है । * रत्नशेखरसूरि ने गुणस्थानक्रमारोह में कहा है कि प्रमत्तविरत गुणस्थान में आर्त्तध्यान प्रमुख रूप से होता है । "
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७. अप्रमत्तसंयत गुणस्थान : जिस गुणस्थान में स्त्रीकथा आदि पन्द्रह प्रकार प्रमाद से रहित संयम होता है, उसे अकलंकदेव ने अप्रमत्तसंयत गुणस्थान कहा हैं । गोम्मटसार ( जीवकाण्ड) में भी कहा है, 'क्रोधादि संज्वलन कषाय और हास्य आदि नो-कषाय का मंद उदय होने से अप्रमत्त गुण से युक्त अप्रमत्तसंयत होता है' । इस गुणस्थान में क्षायोपशमिक भाव तथा सम्यग्दर्शन की अपेक्षा क्षायिक और औपशमिक भाव भी होता है । यह गुणस्थान दो प्रकार का है— (क) स्वस्थानाप्रमत्त संयत और (ख) सातिशय अप्रमत्त
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१. गुणस्थानक्रमारोह, श्लोक २५ ।
२. (क) वत्तावत्तपमादे जो वसइ पमत्त संजदो होदि ।
सयलगुणसील कलिओ, महन्वई चित्तलायरणो ॥ - गोम्मटसार ( जीवकाण्ड),
गा० ३३ ।
(ख) धवला, १1१1१, सू० १५, गा० ११३ ।
३. स्त्रीकथा, भक्तकथा, देशकथा, राजकथा, क्रोध, मान, माया, लोभ, स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु, श्रोत्र, निद्रा और स्नेह - ये पन्द्रह प्रमाद हैं ।
४. धवला १।१।१, सूत्र १४, पृ० १७६-१७७ ।
५. गुणस्थानक्रमारोह, श्लोक २८ ।
६. ( क ) तत्त्वार्थवार्तिक, ९।१।१८, पृ० ५९० ।
(ख) धवला, १ । १ । १, सूत्र १५, पृ० १७८ ।
७. गोम्मटसार ( जीवकाण्ड), गा० ४५ ।
८. स्वस्थानाप्रमत्तः सातिशयाप्रमत्तश्चेति द्वौ भेदौ । - गोम्मटसार ( जीवकाण्ड ),
जीवप्रबोधिनी टीका, गाथा ४५ ।
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