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________________ बन्ध और मोक्ष : २५७ (५) उत्तम गुणों के ग्रहण करने में तत्पर रहता है। (६) देव, गुरु, धर्म, तत्त्व एवं पदार्थ आदि जो कुछ जिनोपदिष्ट हैं, उन्हें नहीं जानता हुआ भी उनमें श्रद्धा करता है । (७) आर्त (दुःखी) जीवों की पीड़ा देखकर उसका हृदय करुणा से द्रवीभूत हो जाता है । रत्नशेखरसूरि ने कहा है कि जिनेन्द्रदेव की नित्य पूजा, गुरु एवं संघ की सेवा तथा जिनशासन की उन्नति का प्रयास करना अविरत सम्यग्दृष्टि के कर्तव्य है। ५. देशवत गुणस्थान : पांचवें गुणस्थान को देशव्रत, संयतासंयत और विरताविरत कहते हैं । नैतिक विकास का यथार्थ आरम्भ इसी गुणस्थान से होता है। अप्रत्याख्यानावरण कषाय का क्षयोपशम तथा प्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय होने से एक देश संयम के होने को देशवत गुणस्थान कहते हैं । जिनदेव, जिनागम और जिन गुरुओं में श्रद्धा रखने वाला जो श्रावक एक ही समय में प्रस जीवों की हिंसा से विरत और स्थावर तथा एकेन्द्रिय विषयक हिंसा से विरत नहीं रहता है, उसे परमागम में विरताविरत कहा गया है । यह विरताविरत श्रावक पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षावत का निरतिचार पूर्वक पालन करता है । अकलंकदेव ने इस क्षायोपशमिक विरताविरत को संयमासंयम और इससे युक्त जीव को संयमासंयमी कहा है ।" संयमभाव की उत्पत्ति का कारण त्रसहिंसा से विरत होना तथा असंयमभाव की उत्पत्ति का कारण स्थावर हिंसा से युक्त होना है । इस प्रकार इन दोनों की उत्पत्ति के कारण भिन्न-भिन्न होने से इनके एक आत्मा में युगपत् होने में कोई विरोध नहीं है । इस गुणस्थान में केवल क्षायोपशमिक भाव ही होता है, अन्य नहीं । तत्त्वार्थवार्तिक तथा धवला' में इस विषय पर विस्तृत ऊहापोह किया गया है । क्षायिक, क्षायोपशमिक और औपशमिक सम्यग्दर्शन में से कोई एक सम्यग्दर्शन इस गुणस्थान १. गोम्मटसार (जीवकाण्ड), गा० २७-२८ । २. गुणस्थानक्रमारोह, श्लोक २३ । ३. गोम्मटसार (जीवकाण्ड), गा० ३० । ४. वही, गा० ३१ । ५. (क) तत्त्वार्थवार्तिक, २।५।८, पृ० १०८ । (ख) पञ्चसंग्रह (प्राकृत), गा० १३५। ६. गोम्मटसार (जीवकाण्ड), मन्दप्रबोधिनी टीका, गा० ३१ । ७. तत्त्वार्थवार्तिक, पृ० १०८ । ८. धवला, १११११, सूत्र १३, पृ० १७३-१७४ । १७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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