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२५६ : जैनदर्शन में आत्म-विचार
८. इस गुणस्थान से जीव प्रथम या चौथे गुणस्थान में जाता है, अन्य में नहीं।'
९. मिश्र गुणस्थानवर्ती के मति, श्रत और अवधिज्ञान भी मिश्र प्रकार के होते हैं । आचार्य वीरसेन ने इसका विस्तृत विवेचन किया है ।।
__ अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान : चतुर्थ गुणस्थानवी जीव के विषय में आचार्यों ने कहा है कि इस गुणस्थानवी जीव की दृष्टि सम्यक् होते हुए भी यह विषय वासना आदि हिंसा से विरत (दर) नहीं होता है, इसलिए इसे अविरत सम्यग्दृष्टि कहते हैं । इस गुणस्थान को असंयत सम्यग्दृष्टि भी कहते हैं, क्योंकि अप्रत्याख्यानी कषाय का उदय होने से संयम का पूर्णतया अभाव रहता है, किन्तु जन्मोपदिष्ट तत्त्वों का श्रद्धान रहता है ।" इस गुणस्थान की अन्य निम्नांकित विशेषताएँ उपलब्ध होती हैं :
(१) संवेगादि गुणों से युक्त होने के कारण अविरत सम्यग्दृष्टि विषयों में अत्यधिक अनुरागी नहीं होता है ।
(२) निरीह और निरपराध जीवों की हिंसा नहीं करता है।' . (३) अपने दोषों की निन्दा तथा गर्दा दोनों करता है।'
(४) पुत्र, स्त्री आदि पदार्थों में गर्व नहीं करता है।
१. षट्खण्डागम, ४।१०५, सूत्र ९, पृ० ३४३ । २. अतएवास्य त्रीणि ज्ञानानि अज्ञानमिश्राणि । --तत्त्वार्थवार्तिक, ९।१।१४ । ३. धवला, १११११, सूत्र ११९, पृ० ३६३ । ४. णोइन्दियेसु विरदोणो जीवे थावरे तसे वापि ।
जो सद्दहदि जिकृत्तं सम्माइट्ठी अविरदो सो॥
-गोम्मटसार ( कर्मकाण्ड ), गा० २९ ।। ५. असंयतश्चासौ सम्यग्दृष्टिश्च असंयत सम्यग्दृष्टिः ।
-धवला, १११११, सूत्र १८, पृ० १७१ । ६. प्रशम (कषायों के उपशमन से उत्पन्न), संवेग (संसार से मीत रूप परिणामों
का होना), अनुकम्पा (जीवों पर दयाभाव रखना), आस्तिक्य (जीवादि पदार्थों के अस्तित्व में विश्वास करना) । ७. गोम्मटसार (जीवकाण्ड), जीवप्रबोधिनी टीका, गा० २९ । ८. वही, ९. दृङ्मोहस्योदयाभावात् प्रसिद्धः प्रशमोगुणः । तत्राभिव्यंजकं बाह्यान्निदनं चापि गहणम् ।। -पंचाध्यायी (उत्तरार्ध), कारिका, ४७२ ।
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