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२५४ : जैनदर्शन में आत्म-विचार
२. सासादन : यह आत्मा के विकास की दूसरी अवस्था है । सासादन गुणस्थान का मूल कारण चारित्र मोहनीय कर्म की अनन्तानुबन्धो कषाय का उदय होना है । सासादन को षट्खंडागम और गोम्मटसार जीवकांड में सासन भी कहा गया है।' 'आसादनं सम्यक्त्व विराधन, सह आसादनेन इति सासादन' अर्थात् सम्यक्त्व के विनाश को आसादन कहते हैं और आसादन से युक्त सासादन है। सम्यक्त्व से रहित होना सासादन कहलाता है, यह व्युत्पत्तिमूलक अर्थ है। सासादन गुण स्थानवी जीव के सम्यक्त्व की विराधना तो हो जाती है, किन्तु मिथ्यात्वजनित परिणामों का अभाव होते हुए भी वह मिथ्यात्व की ओर उन्मुख होता है। गोम्मटसार जीवकांड में आचार्य नेमिचन्द्र ने सासादन गुणस्थान का स्वरूप बतलाते हुए कहा है कि "प्रथमोपशम या द्वितोयोपशम सम्यक्त्व के अन्तमुंहत काल में कम से कम एक समय तथा उत्कृष्ट छह आवली समय शेष रहने पर अनन्तानुबन्धी क्रोधादि चार कषायों में से किसी एक के उदय से जीव सम्यक्त्व से गिर कर, उतने मात्र काल के लिए जिस गुणस्थान को प्राप्त करता है, उसे सासादन गुणस्थान कहते हैं ।" एक उदाहरण द्वारा समझाया गया है कि पर्वत से गिरने और पृथ्वी तक पहुंचने के बीच की अवस्था की तरह सम्यक्त्व और मिथ्यात्व के बीच की अवस्था सासादन गुणस्थान को होती है । सासादन गुणस्थान में मिथ्यात्व का उदय नहीं रहता इसलिए इसे आगम में सम्यग्दृष्टि गुणस्थान भी कहा गया है।५ षट्खंगागम में इसे पारिणामिक भाव कहा है क्योंकि यहाँ मिथ्यात्व का उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम नहीं है । ६ धवला में इसका विस्तृत विवेचन उपलब्ध है । अकलंकदेव ने कहा है कि सासादन गुणस्थानवी जीव गिरता हुआ नियमतः प्रथमगुणस्थान में जाता है।' १. (क) षट्खण्डागम, १११।१०। (ख) गोम्मटसार (जीवकाण्ड), गा० १९ ।
(ग) आसनं क्षेपणं सम्यक्त्व विराधनं तेन सह वर्तते यः स सासनः ।
गोम्मटसार (जीवकाण्ड), मंदप्रबोधिनी टीका, गा० १९ । २. (क) धवला, १।१।१, पृ० १६३ । (ख) तत्त्वार्थवार्तिक, ९।१।१३ । ३. गोम्मटसार (जीवकाण्ड), गा० १९ ।। ४. वही, गा० २० । ५. (क) षट्खंडागम १।१।१, सू० १०। (ख) विस्तृत विवेचन के लिए
द्रष्टव्य धवला, १११११, सू० १०, पृ० १६३ एवं १६६ । ६. सासणसम्मादिट्ठी त्ति को भावो, पारिणामिश्रो भावो ।
-षट्खंडागम, ५।१७ सूत्र ३ । ७. धवला, ५।११७, सूत्र ३, पृ० १९६ । ८. तत्त्वार्थवार्तिक, ९।१।१३, पृ० ५८९ ।
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