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बन्ध और मोक्ष : २५३
स्थान कहा गया है ।' कर्मों का उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम गुणस्थान का प्रमुख कारण है ।२ जैन शास्त्रों में गुणस्थान १४ माने गये हैं-१. मिथ्यात्व, २. सासादन, ३. मिश्र, ४. अविरत सम्यग्दृष्टि, ५. देशविरत, ६. प्रमत्त विरत, ७. अप्रमत्त विरत, ८. अपूर्वकरण, ९. अनिवृत्तिकरण, १०. सूक्ष्म सांपराय, ११. उपशान्तमोह, १२. क्षीण मोह, १३. सयोगीजिन, और १४. अयोग केवलि । गुणस्थानों का यह विभाजन उत्कृष्ट मलिन परिणामों से लेकर उत्कृष्ट, विशुद्ध परिणामों तक तथा उससे ऊपर जघन्य वीतराग परिणाम से लेकर उत्कृष्ट वीतराग परिणाम तक की विभिन्न अवस्थाओं के क्रम के आधार पर किया गया है ।।
१. मिथ्यादृष्टि : आचार्य वीरसेन ने धवला में मिथ्या को वितथ, व्यलोक, असत्य तथा दृष्टि को दर्शन, श्रद्धान, रुचि और प्रत्यय कहा है ।" जो जीव तत्त्वों के यथार्थ स्वरूप में रुचि न रख कर असत्य रुचि या श्रद्धा रखता है, उसे मिथ्यादृष्टि कहते हैं। इसका मूल कारण मिथ्यात्व प्रकृति का उदय होना है। आचार्यों ने मिथ्यादृष्टि की उपमा पित्तज्वर के रोगी से दी है । क्योंकि पित्तज्वर के रोगी को जिस प्रकार मीठा रस अच्छा नहीं लगता है, उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि को यथार्थ धर्म अच्छा नहीं लगता है। आचार्य अमितगति ने श्रावकाचार में कहा है कि मिथ्यादृष्टि उस सर्प की तरह है, जो दूध पीकर भी अपने विष को नहीं छोड़ता है, इसी प्रकार मिथ्यादृष्टि जिनोपदिष्ट आगमों का अध्ययन करता हुआ भी मिथ्यात्व को कभी नहीं छोड़ता है । मिथ्यादृष्टि विवेकहीन होता है। उसमें धर्म-अधर्म के स्वरूप को पहचानने की शक्ति का अभाव रहता है। १. (क) संखेओ ओघो त्ति य गुणसण्णा स च मोहजोगभवा । -गोम्मटसार
(जीवकाण्ड), गा० ३ । (ख) गुण्यन्ते लक्ष्यन्ते दश्यते वा जीवस्ते जीवपरिणामः गुणस्थान संज्ञा
भवतीति ।-गोम्मटसार (जीवकाण्ड), मन्दप्रबोधिनी टीका, गा० ८ । २. गोम्मटसार (जीवकाण्ड), गा० ८। ३. गोम्मटसार (जीवकाण्ड), गा० ९-१० । ४. जैनेन्द्रसिद्धान्तकोश, भाग २, पृ० २४५ । ५. धवला, १११।१, पृ० १६२ । ६. गोम्मटसार (जीवकाण्ड), गाथा १५-१६ । ७. पठन्नपि वचो जैनं मिथ्यात्वं नैव मुंचति ।
कुदृष्टिः पन्नगो दुग्धं पिवन्नपि महाविषम् ॥-अमितगतिश्रावकाचार, २॥१५॥ ८. गुणस्थान क्रमारोह : रत्नशेखर सूरि, श्लोक ८।
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