________________
२५२ : जैनदर्शन में आत्म-विचार
हुए कहा है कि जिस प्रकार बीज और अंकुर की सन्तति अनादि होने पर भी अग्नि द्वारा बीज को जला देने पर फिर उससे अंकुर उत्पन्न नहीं होता है, उसी प्रकार मिथ्यादर्शनादि प्रत्यय और कर्मबन्ध सन्तति के अनादि होने पर भी ध्यान रूपी अग्नि से कर्मबन्ध सन्तति को जला देने पर भवांकुर उत्पन्न नहीं होता है । ' कषायपाहुड़ में उपर्युक्त प्रश्न का उत्तर विस्तार से दिया गया है ? इसमें एक तर्क यह भी दिया गया कि जिस प्रकार खान से निकले हुए स्वर्णपाषाण के अन्तर्गत और बहिरंग कीटकालिमादि का निर्मूल-क्षय अग्नि में डालने आदि से हो जाता है, उसी प्रकार कर्मास्रव का भी तप से निर्मूल-क्षय हो जाता है अन्यथा आस्रव की हानि में तर-तम भाव नहीं बन सकता है । आचार्य वीरसेन और मल्लिषेण ने भी यही युक्ति दी है । अतः सिद्ध है कि कर्मबन्ध सन्तति अनादि होने पर उसका अन्त हो सकता है, लेकिन इस कर्मसन्तति का अन्त एक ही समय में पूर्णरूप से नहीं होता है । इसके विपरीत साधक - आत्मा के कर्मों का विनाश क्रमशः होता है ।
•
(ङ) गुणस्थान : जैन दर्शन की अपूर्व देन :
हम ऊपर यह देख चुके हैं कि संसार में जन्म और मृत्यु के चक्र में फँसा प्राणी किस प्रकार विविध दुःखों से पीडित होकर संसरण करता है । दुःख किसी भी मनुष्य के लिए इष्ट नहीं है, यह सर्वमान्य तथ्य है । फिर इस दुःख से मुक्ति कैसे हो ? इस दिशा में जैन दार्शनिकों ने गहराई से विचार किया है । उन्होंने मनुष्य की दुःख से पूर्ण मुक्ति के लिए मोक्ष मार्ग का निरूपण किया है । वह मोक्ष मार्ग रत्नत्रयरूप है, जिसके अन्तर्गत सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सभ्यचारित्र समाहित है । इन तीनों की उपलब्धि के लिए मनुष्य को जिन सोपानों पर आरोहण करना पड़ता है, उन्हें गुण-स्थान की संज्ञा दी गयी है । प्रकृत में इन गुणस्थानों का विवेचन करना उचित होगा ।
गुणस्थान का स्वरूप :
गुणस्थान को ओघ और संक्षेप कहते हैं । आगम में मोह और योग के कारण जीव के अन्तरंग - परिणामों में प्रति क्षण होने वाले उतार-चढ़ाव को गुण
१. तत्त्वार्थवार्तिक, १०।२१३, पृ० ६४१ ।
२. कषाय पाहुड, पुस्तक १, प्रकरण सं० ४४, पृ० ६१ ।
३. वही,
४. धवला, पु० ९, खं० ४, भाग १, सूत्र ४४, पृ० ११८ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org