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२५० : जैनदर्शन में आत्म-विचार
___ तप के भेद : तप दो प्रकार का है। (१) बाह्य तप, और (२) आभ्यन्तर
तप.1
(१) बाह्य तप : जो तप बाहरी पदार्थों के आलम्बन से किये जाते हैं और जिन्हें दूसरे भी देख सकते हैं, उसे बाह्यतप कहते हैं । बाह्य तप छह प्रकार का है : (१) अनशन, (२) अवमौदर्य, (३) वृत्तिपरिसंख्यान, (४) रसपरित्याग, (५) विविक्तशय्यासन और (३) कायक्लेश । ____२. आभ्यन्तर तप : आभ्यन्तर अर्थात् आन्तरिक तप से सम्बन्धित तप, आभ्यन्तर तप कहलाता है। आचार्य पूज्यपाद, भट्ट अकलंकदेव आदि के ग्रन्थों में आभ्यन्तर तप की अनेक विशेषताएँ बतलाई गई हैं।
तत्त्वार्थसूत्र में आभ्यन्तर तप के छह भेद बतलाये गये हैं-(क) प्रायश्चित्त (ख) विनय (ग) वैयावृत्य (घ) स्वाध्याय (ङ) व्युत्सर्ग (च) ध्यान । __संवर के उपर्युक्त विश्लेषणात्मक विवेचन के आधार पर निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि संवर के कारणभूत गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय, चारित्र और तप से नवीन कर्मों का आना अवरुद्ध हो जाता है । कर्म-संवर का इस प्रकार का विवेचन अन्यत्र उपलब्ध नहीं है । दूसरी बात यह भी है कि जैनेतर धर्म-दर्शन में मान्य तीर्थयात्रा, गंगादि-स्नान, दीक्षा लेना, शीर्षोपहार (बलिदान), देवताओं की आराधना आदि कर्म-संवर के कारण नहीं हैं, क्योंकि उपर्युक्त कार्य राग-द्वेष पूर्वक ही किये जाते हैं। राग-द्वेष और मोह रूप कर्मों की निर्जरा रागादि से नहीं हो सकती है । अतः तीर्थयात्रा आदि संवर के कारण नहीं हैं।
निर्जरा मोक्ष का साक्षात् कारण है। अतः प्रसंगवश अब निर्जरा का विवेचन प्रस्तुत है
(ख) निर्जरा : संवर के द्वारा नवीन कर्मों का आत्मा में प्रवेश होना रुक
१. तत्त्वार्थसार, ६७। २. बाह्यद्रव्यापेक्षत्वात्परप्रत्यक्षत्वाच्च बाह्यत्वम् ।
(क) सर्वार्थसिद्धि, ९।१९, पृ० ३३६; (ख) तत्त्वार्थवार्तिक, ९।१९।१७ । ३. तत्त्वार्थसूत्र, ९।१९ । ४. (क) मनोनियमनार्थत्वात् । सर्वार्थसिद्धि, ९।२० ।
(ख) अन्यतीर्थ्यानभ्यस्तत्वादुत्तरत्वम् । अन्तःकरणज्यापारात्, बाह्यद्रव्यान
प्रेक्षत्वाच्च ।-तत्त्वार्थवार्तिक, ९।२०११-३ । ५. तत्त्वार्थसूत्र, ९।२० ।। ६. सर्वार्थसिद्धि, ९।२, (ख) तत्त्वार्थवार्तिक, ९।२।१२ ।
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