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२४८ : जैनदर्शन में आत्म-विचार ____ अनुप्रेक्षाओं की उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि भावों को शुद्ध करने हेतु पदार्थ के स्वरूप का चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है । __अनुप्रेक्षा के भेद : जैनागमों में अनुप्रेक्षा के बारह भेद बतलाये गये हैं(१) अनित्य (२) अशरण (३) संसार (४) एकत्व (५) अन्यत्व (६) अशुचित्व (७) आस्रव (८) संवर (९) निर्जरा (१०) लोक (११) बोधिदुर्लभ और (१२) धर्म । बारस अणुपेक्खा, कार्तिकेयानुप्रेक्षा, सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थवातिक, तत्त्वार्थसार, ज्ञानार्णव, योगसार आदि में उपर्युक्त अनुप्रेक्षाओं का विशद् स्वरूप-विवेचन उपलब्ध है।
५. परीषहजय : मोक्षमार्ग पर आरूढ़ साधक नवीन कर्मों का संवर करता हुआ संचित कर्मों की निर्जरा के लिए भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी आदि की वेदना को स्वयं अविचलित एवं अविकारी भाव से सहन करता है, यही परीषह है । तत्त्वार्थसूत्र में कहा भी है "मार्ग से भ्रष्ट न होने के लिए और कर्मों की निर्जरा के लिए सहने योग्य को सहन करना परीषह है।"
पूज्यपाद ने परीषहजय का स्वरूप प्रतिपादित करते हुए कहा है कि क्षुधादि को वेदना के होने पर कर्मों की निर्जरा के लिए उन्हें सहन करना परीषह है और परीषह को जीतना परीषहजय है। भट्ट अकलंकदेव ने भी यही कहा है ।। __ परीषह के भेद : तत्त्वार्थसूत्र में" परीषह के बाईस भेद बतलाये गये हैं(१) क्षुधा (२) तृषा (३) शीत (४) उष्ण (५) दंशमशक (६) नग्नता (७) अरति (८) स्त्री (९) चर्या (१०) निषधा (११) शय्या (१२) आक्रोश (१३) वध (१४) याचना (१५) अलाभ (१६) रोग (१७) तृणस्पर्श (१८) मल (१९) सत्कार पुरस्कार (२०) प्रज्ञा (२१) अज्ञान और (२२) अदर्शन ।
६. चारित्र: चारित्र कर्मास्रव के निरोध का, परम संवर का एवं मोक्ष मार्ग का साक्षात् और प्रधान कारण है । समता, माध्यस्थ्य, शुद्धोपयोग, वीतरागता, धर्म १. (क) बारस अणुवेक्खा । (ख) तत्त्वार्थसूत्र, ९।७ । (ग) प्रशमरति प्रकरण,
का० १४२-१५० । २. तत्त्वार्थसूत्र, ९।८। ३. क्षुधादिवेदनोत्पत्तो कर्मनिर्जरार्थं सहनं परिषहः । परिषहस्य जयः परिषह__जयः । सर्वार्थसिद्धि, ९।२, पृ० ३१२ । ४. तत्त्वार्थवार्तिक, ९।२।६। ५. तत्त्वार्थसूत्र, ९।९। ६. (क) चारित्रमन्ते गृह्यते मोक्षप्राप्तेः साक्षात्कारणमिति ज्ञापनार्थम् । सर्वार्थ
सिद्धि , ९।१८, पृ० ३३३ । (ख) तत्त्वार्थवार्तिक, ९।१८१५, पृ० ६१७, एवं
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