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बन्ध और मोक्ष : २४७
है । ' पात्र (धर्मी) की अपेक्षा से भी धर्म दो प्रकार का बतलाया गया है : गृहस्थधर्म और मुनि धर्म | प्रकृत में मुनि-धर्म ही अभीष्ट है । क्योंकि मुनि-धर्म पालन करने से ही पूर्णरूप से संवर हो सकता है । यह मुनिधर्म उत्तमक्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य के भेद से दस प्रकार का है । २
४.
अनुप्रेक्षा : अनुप्रेक्षाओं से न केवल नवीन कर्मों का आना ही बन्द होता है, बल्कि पुराने संचित कर्मों की निर्जरा भी होती है । वैराग्य की वृद्धि एवं सम्पुष्टि भी अनुप्रेक्षाओं द्वारा होती है । अध्यात्म मार्ग के पथिक ( साधक) की कषाय अग्नि का शमन अनुप्रेक्षाओं से ही होता है ।
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अनुप्रेक्षा, भावना, चिन्तन समानार्थक हैं । उमास्वामी ने तत्त्वों के बार-बार चिन्तन करने को अनुप्रेक्षा कहा है । सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवार्तिक में अनुप्रेक्षा की दो परिभाषाएँ उपलब्ध होती हैं । शरीर आदि के स्वभाव का बारबार चिन्तन करना अनुप्रेक्षा कहा गया है ।" इसी प्रकार ज्ञात विषय का अभ्यास करना अनुप्रेक्षा है । वीरसेन ने भी धवला में कहा है "कर्मों की निर्जरा के लिए पूर्णरूप से हृदयंगम हुए श्रुत ज्ञान का परिशीलन करना अनुप्रेक्षा है।"
पंचपरमेष्ठ्यादिभक्तिपरिणामरूपो व्यवहारधर्मस्तावदुचयते । - प्रवचनसार, तात्पर्यवृत्ति, ११८ ।
२. बारस अणुवेक्खा, गाथा ६८-७० ।
३. ( क ) विध्याति कषायाग्निविगलति रागो विलीयते ध्वान्तम । उन्मिषति बोधदीपो हृदि पुंसां भावनाभ्यासात् ॥ - ज्ञानार्णव, सर्ग २ । उपसंहार का० २ ।
(ख) तद्भावना भवत्येव कर्मणः क्षयकारणम् ॥ पञ्चविंशतिका, ६१४२ । ...स्वाख्यातत्त्वानुचिन्तनमनुप्रेक्षाः । -- तत्त्वार्थसूत्र, ९७ ।
४.
५. शरीरादीनां स्वाभावानुचिन्तनमनुप्रेक्षा (क) सर्वार्थसिद्धि, ९ २ | पृ० ३१२ | (ख) तत्त्वार्थवार्तिक, ९१२१४ ।
६. ( क ) वही, ९।२५ । (ख) वही, ९।२५।३ ।
७. (क) कम्मणिज्जरणदृमट्टि भज्जायुगमस्स । सुदणाणस्सपरिमलणमणुपेकरवण
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णाम । - धवला, पु० ९, खं० ४, भा० १, सूत्र ५५ ।
(ख) सुदत्थस्स सुदाणुसारेण चित्तण मणुपेहणणां । वही, पृ० १४, खं०
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भा० ६, सूत्र १४ ।
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