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________________ २४६ : जेनदर्शन में आत्म-विचार गुप्ति के भेद : पूज्यपाद' आदि आचार्यों ने गुप्ति के तीन प्रकार बतलाये हैं - (१) कायगुप्ति ( २) वचनगुप्ति और (३) मनोगुप्ति । ( २ ) समिति : समिति का पालन करने से साधु को हिंसा का पाप नहीं लगता है । समिति का भलीभाँति पूर्वक आचरण करना समिति है । तात्पर्य यह है कि गुप्त का पालन हमेशा नहीं किया जा सकता है और साधक को भी प्राण-यात्रा के लिए कुछ बोलना, खाना, पीना, रखना, उठाना, मलमूत्र आदि का त्याग करना पड़ता है । ऐसा करने से कर्म - आस्रव हो सकते हैं, अतः कर्म आस्रव को रोकने के लिए और संयम की शुद्धि के लिए साधक को चाहिए कि उपर्युक्त क्रियाएं आगम के कथनानुसार इस प्रकार करें कि दूसरे प्राणियों का विनाश न हो । जीवों की रक्षा का इस प्रकार का विचार ( भावना) समिति है । पूज्यपाद आदि आचार्यों ने कहा भी है " पीड़ा के परिहार ( दूर करने ) के लिए सम्यक् प्रकार से प्रवृत्ति होना समिति है समिति के भेद : आगमों में समिति के पाँच भेद बतलाये गये हैं ४ – (१) ईर्यासमिति ( २ ) भाषासमिति ( ३ ) एषणासमिति ( ४ ) आदाननिक्षेपणसमिति और (५) उत्सर्गसमिति । ।" -- (३) धर्म : जैन दर्शन में धर्म की व्याख्या विभिन्न दृष्टिकोणों से की गई है | समता, माध्यस्थता, शुद्ध भाव, वीतरागता, चारित्र और स्वभाव की आराधना - ये धर्मवाचक शब्द हैं । ५ आचार्य कुन्दकुन्द के प्रवचनसार और भावपाहुड़ आदि ग्रन्थों में चारित्र एवं राग-द्वेष से रहित आत्मा के परिणाम को धर्म बतलाया गया है । धर्म के भेद : धर्म निश्चय और व्यवहार की अपेक्षा से दो प्रकार का होता १. सत्रितयी काय गुप्तिर्वाग्गुप्तिर्मनोगुप्तिरिति । सर्वार्थसिद्धि ९१४ और भी द्रष्टव्य ( क ) तत्त्वार्थवार्तिक, ९।४।४ । (ख) तत्त्वार्थसार, ६ |४ | २. समितिरिती, सम्यगिति : समितिरिति । तत्त्वार्थवार्तिक, ९।५।२ । ३. प्राणिपीडापरिहारार्थं सम्यगयनं समिति: । ( क ) सर्वार्थसिद्धि, ९।२ । (ख) तत्त्वार्थवार्तिक ९ । २२ । (ग) भगवती आराधना, विजयोदयाटीका, गा० १६ । ५ । 7 ४. (क) मूलाचार, गा० १० एवं ३०१ । (ख) चारित्रपाहुड़, गा० ३७ ॥ (ख) तत्त्वार्थ सूत्र, ९/५ और उसकी टीकायें । ५. नयचक्र, गा० ३५६-५७ । ६. प्रवचनसार, तात्पर्यवृत्ति, १/७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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