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________________ बन्ध और मोक्ष : २४५ कहे गये हैं।'धवला में भी सम्यग्दर्शन, विषय-विरक्ति, कषाय-निग्रह और योग के निरोध को संवर बतलाया गया है । स्थानांग और समवायांग आगम में भी सम्यक्त्व-व्रत, अप्रमाद, अकषाय और योग का अभाव संवर के कारण माने गये हैं ।३ उमास्वामी और उनके तत्त्वार्थसूत्र के टोकाकारों ने (१) गुप्ति, (२) समिति, (३) धर्म, (४) अनुप्रेक्षा, (५) परीषहजय (६) चारित्र और (७) तप को संवर का कारण माना है।" १. गुप्ति : गुप्ति का अर्थ है-रक्षा करना अर्थात् आत्मा की रक्षा करना गुप्ति कहलाती है। गुप्ति के बिना कर्मों का संवर नहीं हो सकता है । भगवती आराधना, मूलाचार आदि आगमों में कहा भी है "जिस प्रकार खेत की रक्षा के लिए काटों की बाड़ी होती है अथवा नगर की रक्षा के लिए नगर के चारों ओर खाई-कोट (प्राकार) होता है, उसी प्रकार पाप को रोकने के लिए गुप्ति होती है।"५ पूज्यपाद ने कहा है कि संक्लेशरहित योगों का निरोध करने से उनसे आने वाले कर्मों का आगमन रुक जाता है। अतः गुप्ति से संवर होना सिद्ध है।६ संवर के अन्य कारण गुप्ति पर निर्भर है। महाव्रतों का निर्दोष पालन भी गुप्ति पर निर्भर करता है। तत्त्वार्थसूत्र में मन, वचन और काय को योग कह कर उस योग को सम्यक् (भलिभाँति) रूप से रोकने को गुप्ति कहा गया है।" १. सम्मत्तं देसवयं महब्वयं तह जओ कसायाणं । एदे संवर - णामा जोगाभावो तहा चेव ।। जो पुण विसयविरत्तो अप्पाणं सव्वदो वि संवर इ । मणहर विसएहितो तस्स फडं संवरो होदि ॥ -कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गा० ९५, १०१ । २. धवला, पु० ७, खं० २, भा० १, सूत्र ७, गा० २ । ३. जैनदर्शन : स्वरूप और विश्लेषण, पृ० २०४ । ४. (क) स गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्रैः।-तत्त्वार्थसूत्र, ९।२-३ । . (ख) सर्वार्थसिद्धि, ९।२-३। (ग) तत्त्वार्थवार्तिक, ९।२-३ । (घ) तत्त्वार्थसार, ६।३।। ५. (क) भगवती आराधना, गा० ११८९ । (ख) मूलाचार, गा० ३३४ । ६. तस्मात् सम्यग्विशेषणविशिष्टात, संक्लेशाप्रादुर्भावपरात्कायादियोग निरोधो सहि तन्निमित्तं कर्म नास्रवतीति संवरप्रसिद्धिरवगन्तव्या । -सर्वार्थसिद्धि, ९।४ । तुलना के लिए-(क) तत्त्वार्थवार्तिक, ९।४।४ । (ख) तत्त्वार्थसार, ६।५ । ७. तत्त्वार्थसूत्र, ९।४ और भी द्रष्टव्य-मूलाचार, गा० ३३१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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