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२४४ : जैनदर्शन में आत्म-विचार
पर संवृत जीव के नवीन कर्मों का आना रुक जाता है। हेमचन्द्रसूरि ने एक यह भी उदाहरण दिया है कि जिस तरह तालाब में समस्त द्वारों से जल का प्रवेश होता है किन्तु द्वारों को बन्द कर देने से उसके अन्दर जल प्रवेश नहीं करता है, उसी प्रकार योगादि आस्रवों को सर्वतः अवरुद्ध कर देने से संवृत आत्मा के प्रदेशों में कर्म द्रव्य प्रविष्ट नहीं होता है ।
जिन क्रियाओं से संसार होता है, उसे रोकने वाला आत्मा का परिणाम भाव-संवर और कर्म-पुद्गलों को रोकने वाला कारण द्रव्य-संवर कहलाता है।३ इस प्रकार संवर दो प्रकार का होता है ।
___ संवर के कारण : आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार में अविपरीत ज्ञान को संवर का कारण बतलाया है। वे कहते हैं कि उपयोग में उपयोग है, क्रोध में उपयोग नहीं है, क्रोध में क्रोध है, उपयोग में क्रोध नहीं। आठ प्रकार के कर्म और नो-कर्म में उपयोग नहीं है तथा उपयोग में कर्म और नो-कर्म नहीं हैं। इस प्रकार का अविपरीत अर्थात् सम्यक् ज्ञान होने पर जीव उपयोग से शुद्ध आत्मा अन्य भावों को नहीं करती है । अतः ज्ञानयुक्त आत्मा शुद्ध चेतन स्वरूप आत्मा का ध्यान कर कर्मों से रहित हो जाता है। पञ्चास्तिकाय में भी कहा है "जिसके समस्त द्रव्यों में राग-द्वेष-मोह नहीं होता है, उस सुख-दुःख में समभाव रखने वाले मुनि के शुभ-अशुभ कर्मोका आस्रव न होने से पुण्य और पाप रूप कर्मों का संवर हो जाता है ।"५ बारस-अणुवेक्खा में सम्यक्त्व, महानत, कषायनिरोध, चारित्र और ध्यान-संवर के कारण बतलाये गये हैं।
कात्तिकेयानुप्रेक्षा में भी सम्यक्त्व, देशव्रत, महाव्रत, कषाय-जय और योगों का अभाव एवं विषय-विरक्ति, मन और इन्द्रिय-निरोध-संवर के कारण
१. रुधिय छिद्दसहस्से जलजाणे जह जलं तु णासवदि ।
मिच्छत्ताइअभावे तह जीवे संवरो होई ।।-नयचक्र, गा० १५६ । २. नवतत्त्व साहित्य संग्रह (सप्त तत्त्व प्रकरण), ११८-१२२ ।
जैन दर्शन : स्वरूप और विश्लेषण, पृ० ४९९ पर उद्धत । ३. (क) सर्वार्थसिद्धि, ९।१, पृ० ४०६ ।
(ख) चेदणपरिणामो जो कम्मस्सासवणिरोहणे हेऊ ।
सो भावसंबरो खलु दन्वासवरोहणे अण्णो ।-द्रव्यसंग्रह, गा० ३४ । ४. समयसार, संवराधिकार, गा० १८१-१९२ । ५. पञ्चास्तिकाय, गा० १४२-१४३ । ६. द्वादशानुप्रेक्षा, गा० ६१-६४ ।
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