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बन्ध और मोक्ष : २४३ हो सकता है । इसके विपरीत ज्ञान और आचरण के संयोग से कर्मबन्ध-निरोध अवश्य हो जाता है । सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शन के बिना सम्भव नहीं है। इसलिए जैन दार्शनिकों ने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र को समष्टि रूप से मोक्ष का कारण बतलाया है । __ जैन दर्शन में कर्मबन्ध-उच्छेद को दो विधियाँ प्रतिपादित की गयी है।' पहली विधि के द्वारा नवीन कर्मबन्ध को रोका जाता है, इसे आगम में संवर कहते हैं। दूसरी विधि के द्वारा आत्मा से पूर्वबद्ध कर्मों को अपने विपाक के पूर्व ही तपादि के द्वारा अलग किया जाता है, इसे जैन आचार्यों ने निर्जरा कहा है । कर्मबन्ध-निरोध-प्रक्रिया एक उदाहरण के द्वारा स्पष्ट रूप से समझी जा सकती है । जिस प्रकार किसी तालाब के पानी को खाली करने के लिए पहले उन नालों को बन्द करना पड़ता है, जिनसे तालाब में पानी आता है। इसके बाद तालाब के अन्दर का पानी किसी यन्त्र से बाहर निकाल देते हैं । ऐसा करने से तालाब पानी से खाली हो जाता है। उसी प्रकार नवीन कर्म-आस्रवों का निरोध और उसके बाद पूर्वबद्ध कर्मोकी निर्जरा करने से आत्मा कर्मों से रहित हो जाती है । बन्धोच्छेद के प्रसंग में संवर के बाद निर्जरा करने से ही साधक मोक्ष प्राप्त कर सकता है। संवरविहीन निर्जरा निरर्थक होती है। आचार्य शिवकोटि ने कहा भी है, “जो मुनि संवरविहीन है, केवल उसके कर्म का नाश तपश्चरण से नहीं हो सकता है। यदि जल-प्रवाह आता ही रहेगा तो तालाब सूखेगा कब?" उपर्युक्त उद्धरण से यह स्पष्ट है कि कर्मबन्धोच्छेद में संवर और निर्जरा का महत्त्वपूर्ण एवं प्रमुख स्थान है, इसलिए उनका यहाँ संक्षिप्त विवेचन प्रस्तुत किया जाता है।
(क) संवर : कर्मों के आस्रव के निरोध को संवर कहते हैं । अकलंकदेव ने एक उदाहरण द्वारा बताया है कि जिस प्रकार नगर की अच्छी तरह से घेराबन्दी कर देने से शत्रु नगर के अन्दर प्रवेश नहीं कर सकता है, उसी प्रकार गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र द्वारा इन्द्रिय, कषाय और योग को भली-भाँति संवृत कर देने पर आत्मा में आने वाले नवीन कर्मों के द्वार का रुक जाना संवर है । एक दूसरे उदाहरण द्वारा भी संवर को आचार्यों ने समझाया है । जिस प्रकार छिद्रयुक्त नौका के छेद को बंद कर देने से उसमे जल नहीं प्रविष्ट होता है, उसी प्रकार मिथ्यात्व आदि आस्रवों को सर्वतः अवरुद्ध कर देने
१. भगवती आराधमा : शिवकोटि, गाथा १८५४ । ...... २. आस्रवनिरोधः संवरः । तत्त्वार्थसूत्र, ९।१।। ३. तत्त्वार्थवार्तिक, १।४।११, पृ० १८, तथा ९६१, पृ० ५८५ ।
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