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२४२ : जैनदर्शन में आत्म-विचार (शुभ) कार्यों में अनादर भाव रखने को प्रमाद बतलाया है । वीरसेन ने क्रोध, मान, माया और लोभ रूप संज्वलन कषाय और हास्य आदि नौ उप-कषायों के तीव्र उदय होने को प्रमाद कहा है ।' महापुराण में मन, वचन, काय की उस प्रवृत्ति को प्रमाद बतलाया गया है, जिससे छठवें गुणस्थानवर्तीजीव को व्रतों में संशय उत्पन्न हो जाता है । स्त्रीकथा, भक्तकथा, राष्ट्रकथा, राजकथा, क्रोध, मान, माया, लोभ, स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, श्रोत, निद्रा और स्नेह की अपेक्षा से प्रमाद पन्द्रह प्रकार का होता है ।
(४) कषाय : आत्मा के भीतरी वे कलुष परिणाम, जो कर्मों के श्लेष के कारण होते हैं, कषाय कहलाते हैं ।
(५) योग : मन, वचन और काय के द्वारा होने वाले आत्म-प्रदेशों के परिस्पन्दन को योग कहते हैं। इन्हीं के कारण कर्मों का आत्मा के साथ संयोग होता है।
उपर्युक्त कर्मबन्ध-प्रक्रिया के विवेचन से स्पष्ट है कि जैन दर्शन में इसका सूक्ष्म विवेचन किया गया है। कर्मबन्ध-प्रक्रिया का इतना सूक्ष्म चिन्तन अन्यत्र उपलब्ध नहीं है। यद्यपि कर्मबन्ध के कारणों के विषय में जैन दर्शन और अन्य दर्शनों में कुछ भेद है, लेकिन मूलतः उनमें भेद नहीं है। क्योंकि मिथ्याज्ञान को सभी दार्शनिकों ने कर्मबन्ध का कारण माना है। इस कर्मबन्ध का उच्छेद भी हो सकता है। अतः कर्मबन्ध-प्रक्रिया की तरह कर्मोच्छेद-प्रक्रिया का विवेचन करना भी आवश्यक है । (घ) बन्ध-उच्छेद :
बन्ध-उच्छेद का अर्थ है, आत्मा के कर्मबन्ध का नष्ट होना। भारतीय दार्शनिकों ने कर्मबन्ध और उसके कारणों की भाँति, बन्ध-उच्छेद का भी विशद् तथा तार्किक विवेचन किया है । वैदिक-दार्शनिक एकमात्र ज्ञान से बन्धोच्छेद होना मानते हैं, लेकिन जैन-दार्शनिक इस विषय में उनसे सहमत नहीं हैं। उनकी मान्यता है कि ज्ञानमात्र या आचरणमात्र से कर्मबन्ध का निरोव नहीं
१. धवला, पु० ७, खं० २, भाग १, सूत्र ७ । २. महापुराण, ६२।३०५ । ३. गोम्मटसार (जीवकाण्ड), गा० ३४ । ४. (क) सर्वार्थ सिद्धि, ६।४, ८० ३२० ।
(ख) तत्त्वार्थवार्तिक, ६।४।२, पृ० ५०८ । ५. सर्वार्थसिद्धि, २।२६,१० १८३ ।
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