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बन्ध और मोक्ष : २४१
श्रद्धान होता है और मिथ्यादर्शन के कारण तत्त्वों का यथार्थ श्रद्धान नहीं होता हैं ।' भगवती आराधना एवं सर्वार्थसिद्धि में कहा भी है- "जीवादि पदार्थों का श्रद्धान न करना मिथ्यादर्शन है ।" कारण विपर्यास, भेदाभेद विपर्यास और स्वरूप विपर्यास की अपेक्षा से मिथ्यादर्शन तीन प्रकार का होता है ।
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( २ ) अविरति : विरति का अभाव अविरति है । सर्वार्थसिद्धिकार ने विरति का स्वरूप बतलाते हुए कहा है कि हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्मचर्य और परिग्रह से विरत होना अर्थात् अनासक्त होना विरति है और इनसे विरति न होना अविरति है । अतः हिंसा आदि पाँच पापों को नहीं छोड़ना या अहिंसादि पाँच व्रतों का पालन न करना अविरति है ।
ब्रह्मदेव ने कहा भी है " अन्तरंग में अपने परमात्मस्वरूप की भावना एवं परमसुखामृत में उत्पन्न प्रीति के विपरीत बाह्य विषय में व्रत आदि का पालन न करना, अविरति है ।" आचार्य कुन्दकुन्द के बारस- अणुवेक्खा में अविरति के पाँच भेदों का उल्लेख है - (१) हिंसा, (२) झूठ, (३) चोरी, (४) कुशील और ( ५ ) परिग्रह | "
(३) प्रमाद प्रमाद का अर्थ है - उत्कृष्ट रूप से आलस्य का होना । क्रोधादि कषायरूप भार के कारण जीव इतना भारी हो जाता है कि अहिंसा आदि अच्छे कार्यों के करने में उसका आदरभाव नहीं होता है । यही कारण है कि आचार्य पूज्यपाद', भट्ट अकलंकदेव ने कषायसहित अवस्था और कुशल
१. निजनिरञ्जन निर्दोषपरमात्मैवोपादेय इति रूचिरूपसम्यक्त्वाद्विलक्षणं मिथ्याशल्यं भण्यते । — द्रव्यसंग्रहटीका, गा० ४२, पृ० ७९ ।
२. तं मिच्छतं जमसद्दहणं तच्चाण होइ अत्थाणं ।
भगवती आराधना, गा० ५६ ।
३. (क) सर्वार्थसिद्धि, २१६ । (ख) नयचक्र, गाथा ३०३ ।
४. सर्वार्थसिद्धि, १३२ ।
५. विरतिरुक्ता । तत्प्रतिपक्षभूता अविरतिर्ग्राह्या । सर्वार्थसिद्धि, ८ १ ।
६. वही, ७।१ ।
७. द्रव्यसंग्रह टीका, गा० ३०, पृ० ७८ ।
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८. बारस- अणुवेक्खा, गा० ४८ ।
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९. ( क ) प्रमादः सकषायत्वं । सर्वार्थसिद्धि, ७११३ । (ख) स च प्रमादः कुशलेष्वनादरः । - वही, ८। १ ।
१०. तत्त्वार्थवार्तिक, ८|१|३ |
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