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________________ बन्ध और मोक्ष : २३९ (ग) बन्ध के कारण : जैनेतर वर्शन में बन्ध के कारण : आत्मा कर्म से क्यों बंधता है ? बन्ध के क्या कारण हैं ? दार्शनिक क्षेत्र में ये प्रश्न अत्यन्त महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं। वैदिक दार्शनिकों ने अज्ञान या मिथ्याज्ञान को बन्ध का कारण माना है। न्यायसूत्र में मिथ्याज्ञान को समस्त दुःखों का कारण कहा गया है। गौतमऋषि ने कहा है कि मिथ्याज्ञान ही मोह है। यह मोह केवल तत्त्वज्ञान की उत्पत्तिरूप नहीं है, किन्तु शरीर, इन्द्रिय, मन, वेदना और बुद्धि के अनात्म होने पर भी इनमें "मैं ही हूँ," ऐसा जो ज्ञान मिथ्याज्ञान और मोह है, यही कर्म-बन्ध का कारण है। वैशेषिक दार्शनिकों का भी यही मन्तव्य है। ईश्वरकृष्ण ने भी सांख्यकारिका में बन्ध का कारण प्रकृति और पुरुष विषयक विपर्ययज्ञान को माना है । यही विपर्यय मिथ्याज्ञान कहलाता है। योग दार्शनिक क्लेश को बन्ध का कारण मानते हैं। किन्तु क्लेश का कारण उन्होंने अविद्या को माना है । अद्वैत वेदान्त दर्शन में अविद्या को ही बन्ध का कारण माना गया है। बौद्ध दर्शन में भी कर्मबन्ध का कारण अविद्या मानी गयी है। कहीं-कहीं मिथ्याज्ञान और मोह को भी बन्ध का कारण कहा गया है । जैन दर्शन में कर्मबन्ध के कारण : जैनदार्शनिकों ने कर्म-बन्ध के कारणों की संख्या एक से लेकर पांच तक बतलायी है। आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार में वैदिक दर्शनों की तरह अज्ञान को ही बन्ध का प्रमुख कारण बतलाया है । प्रज्ञापनासूत्र में भगवान् ने गौतम को सम्बोधित करते हुए कहा है कि ज्ञानावरणीय कर्म के तीव्र उदय से दर्शनावरणीय कर्म का तीव्र उदय होता है, दर्शनावरणीय कर्म के तीव्र उदय से दर्शन मोहनीय कर्म का तीव्र उदय होता है, दर्शन मोह के तीव्र उदय से मिथ्यात्व का तीन उदय होता है और मिथ्यात्व के उदय से जीव आठ प्रकार के कर्म बांधते हैं। इस कथन से स्पष्ट है कि बन्ध का मूल कारण १. (क) न्यायसूत्र, १।१।२, ४।१।३-६ । (ख) न्यायभाष्य, ४।२।१ । २. प्रशस्तपादभाष्य, पृ० ५३८ । ३. सांख्यकारिका, ४४, ४७ एवं ४८ । ४. योगदर्शन, २१३१४ । ५. भारतीय दर्शन-सम्पा० डा० न० कि० देवराज, अद्वैतवेदान्त प्रकरण । ६. (क) समयसार, गा० २५९ और भी द्रष्टव्य, गा० १५३ । (ख) समयसार आत्मख्याति, टी० गा० १५३ । ७. जैन दर्शन : मनन और मीमांसा, पृ० २८३ पर उद्धृत । - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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