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________________ बन्ध और मोक्ष : २३७ (ख) पंचसंग्रह और गोम्मटसार ( कर्मकाण्ड ) में प्रकृति-बन्ध के निम्नांकित चार भेद भी उपलब्ध हैं :-(१) सादिबन्ध (२) अनादिबन्ध (३) ध्रुवबन्ध और (४) अध्रुवबन्ध । (आ) स्थितिबन्ध :-जितने समय तक कर्मरूप पुद्गल परमाणु आत्मा के प्रदेशों में एक होकर ठहरते हैं, उस काल की मर्यादा को स्थितिबन्ध कहते हैं । अतः कर्मबन्ध और फलप्रदान करने के बीच का समय स्थितिबन्ध कहलाता है। आचार्य पूज्यपाद ने कहा है कि अपने-अपने स्वभाव से च्युत न होना स्थिति है। जिस प्रकार बकरी, गाय और भैंस आदि के दूध का माधुर्य स्वभाव से च्युत न होना स्थिति है, उसी प्रकार ज्ञानावरण आदि कर्मों के, वस्तु का ज्ञान न होने देना, स्वभाव का न छूटना आदि स्थितिबन्ध है। वीरसेन ने भी कहा हैयोग के कारण कर्म रूप से परिवर्तित पुद्गल स्कन्धों का कषाय के कारण जीव में एक रूप रहने का कारण स्थितिबन्ध है। स्थितिबन्ध के भेद : स्थितिबन्ध दो प्रकार का है-१. उत्कृष्ट स्थितिबन्ध और २. जघन्य स्थितिबन्ध । उत्कृष्ट संकलेश रूप कारण से होने वाली कर्मों की स्थिति उत्कृष्ट स्थितिबन्ध है । मन्दकषाय के कारण कर्मों के अवस्थान का काल जघन्य (कम से कम) स्थितिबन्ध कहलाती है । (इ) अनुभागबन्ध : अनुभाग का अर्थ है-शक्ति । प्रकृति में अनुभाग का अर्थ कर्मों की फल देने की शक्ति विशेष है। उमास्वामी ने कहा भी है "विविध प्रकार से फल देने की शक्ति अनुभाग या अनुभवबन्ध कहलाती है।" १. पंचसंग्रह, गा० ४।२३३ । २. गोम्मटसार ( कर्मकाण्ड ), गा० ९० । ३. (क) कम्मसरूवेण परिणदाणं कम्मइयपोग्गलक्खं धाणं कम्मभावमछंडिय अच्छणकालो हिदीणाम । -कसायपाहुड, ३।३५८ । (ख) तत्त्वार्थवार्तिक, ६।१३।३ । ४. सर्वार्थसिद्धि, ८।३।। ५. धवला पु० ६, सं० १, भाग ९-६, सूत्र २ । ६. सा स्थितिद्विविधा-उत्कृष्टा जघन्या च । सर्वार्थसिद्धि, ८।१३ । ७. प्रकृष्टात् प्रणिधानात् परा, तत्त्वार्थवार्तिक, ८।१३।३।। ८. (क) निकृष्टात् प्रणिधानात् अवरा । तत्त्वार्थवार्तिक, ८।१३।३ । (ख) गोम्मटसार (कर्मकाण्ड), गा० १३४ । ९. (क) विपाकोऽनुभवः तत्त्वार्थसूत्र, ८।२१ । (ख) मूलाचार, गा० १२४० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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