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२३६ : जैनदर्शन में आत्म-विचार
(ब) प्रकृतिबन्ध : गोम्मटसार ( कर्मकाण्ड ) में प्रकृति, शील, मल, पाप कर्म और स्वभाव को एकार्थवाची कहा गया है। पण्डित राजमल्ल ने पंचाध्यायी में शक्ति, लक्षण, विशेष, धर्म, रूप, गुण स्वभाव, प्रकृति, शील और आकृति को एकार्थवाची शब्द बतलाया है ।' पूज्यपाद ने स्वभाव को प्रकृति कहा है । रागद्वषादि विचित्र भावों के अनुसार कर्म भी विभिन्न प्रकार की फलदान-शक्ति को लेकर आते हैं और अपने प्रभाव से आत्मा को प्रभावित करते हैं। जो कर्म जिस प्रकार का फल देता है, वह प्रकृति का स्वभाव कहलाता है। धवला में आचार्य वीरसेन ने कहा भी है "जिसके द्वारा आत्मा को अज्ञानादि रूप फल दिया जाता है, वह प्रकृति है। जो कर्मस्कन्ध वर्तमान काल में फल देता है और भविष्य में फल देगा, इन दोनों ही कर्म-स्कन्धों को प्रकृति कहते हैं" । पूज्यपाद ने उदाहरण देकर बतलाया है कि नीम की प्रकृति कड़वापन है। इसी प्रकार ज्ञानावरण कर्म की प्रकृति ज्ञान का न होने देना है। कर्म साहित्य में एक और उदाहरण उपलब्ध है। जिस प्रकार किसी लड्डू का स्वभाव किसी की वायु को, किसी के कफ को और किसी के पित्त को दूर करने का होता है, उसी प्रकार किसी कर्म का स्वभाव आत्मा के ज्ञानगुण को न होने देना है, किसी का स्वभाव दर्शन गुण पर आवरण डालना है। इसी प्रकार अन्य कर्मों का अपना-अपना स्वभाव है। अतः आठ प्रकार के कर्मों के योग्य पुद्गल द्रव्य का आकार वारण करना प्रकृतिबन्ध है।
प्रकृतिबन्ध के भेद : (क) कर्म साहित्य में प्रकृतिबन्ध दो प्रकार का कहा गया है :- १. मूल प्रकृतिबन्ध-ज्ञानावरणादि आठ कर्म मूल प्रकृतिबन्ध हैं। २. उत्तर प्रकृतिबन्ध-कर्मी के भेद-प्रभेद उत्तर प्रकृतिबन्ध कहलाते हैं। उत्तर प्रकृतिबन्ध के एक सौ अड़तालीस भेद हैं। पंचाध्यायी में उत्तर प्रकृतिबन्ध के असंख्यात भेद होने का उल्लेख किया गया है।
१. (क) गोम्मटसार, गा० २ एवं ५२ ।
(ख) पंचाध्यायी, पूर्वार्धकारिका ४८ । २. प्रकृतिः स्वभावः-सर्वार्थसिद्धि, ८१३, पृ० ३७८ । ३. धवला, पु० १२, खण्ड ४, भाग २, पृ० ३०४ । ४. सर्वार्थसिद्धि, ८।३, पृ० ३७८ । ५. वही, ८।३, पृ० ३७८ । ६. ज्ञानावरणाद्याष्टविधकर्मणां तत्तद्योग्यपुद्गलद्रव्यस्वीकारः प्रकृतिबन्ध । नियम
सार, तात्पर्यवृत्ति, ४०। ७. दुविहो पर्यायबन्धों मूलों तहउत्तरो चेव । मूलाचार, गा० १२२१ ।
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