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________________ बन्ध और मोक्ष : २३५ (आ) भावबन्ध : आत्मा के अशुद्ध चेतन परिणाम (भाव) मोह, रागद्वेष और क्रोधादि, जिनसे ज्ञानावरणादि कर्म के योग्य पुद्गल परमाणु आते हैं, भावबन्ध कहलाता है ।' आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार२ में कहा है कि जो उपयोग स्वरूप जीव विविध विषयों को प्राप्त कर मोह, राग, द्वेष करता है, वही उनसे बंधता है। द्रव्यसंग्रह में नेमिचन्द्र ने भी कहा है कि जिस चेतन परिणाम से कर्म बंधता है, वह भावबन्ध है। इस पर टीका करते हुए ब्रह्मदेव ने लिखा है कि मिथ्यात्व रागादि की परिणति रूप या अशुद्ध चेतन भाव के परिणामस्वरूप जिस भाव से ज्ञानावरणादि कर्म बंधते हैं, वह भाव बन्ध कहलाता है। द्रव्य-बन्ध और भाव-बन्ध में भाव-बन्ध ही प्रधान है क्योंकि इसके बिना कर्मों का जीव के साथ बन्ध नहीं हो सकता है। आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार में कहा भी है "वह (अज्ञान, मिथ्या-दर्शन और मिथ्याचारित्र) तथा इस प्रकार के और भी भाव जिनके नही होते हैं, वे मुनि अशुभ या शुभ कर्म से लिप्त नहीं होते हैं।" बन्ध के चार भेद : उमास्वामी ने तत्त्वार्थसत्र में बन्ध के चार भेद बतलाए हैं : (अ) प्रकृतिबन्ध (आ) स्थितिबन्ध (इ) अनुभव (अनुभाग) बन्ध (ई) प्रदेशबन्ध ये चारों कर्मबन्ध उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य की अपेक्षा से चार-चार प्रकार के होते हैं । १. (क) क्रोधादि परिणामवशीकृतो भावबन्धः-तत्त्वार्थवार्तिक, २।१००, -पृ० १२४ । (ख) बध्यन्ते अस्वतन्त्री क्रियन्तेकार्मणद्रव्यायेनपरिणमेन आत्मनः स बन्धः । -भगवती आराधना, विजयोदया टीका, ३८।१३४ । २. प्रवचनसार, २१८३ । ३. बज्झदि कम्म जेण दु चेदणभावेण भावबंधो सो-द्रव्यसंग्रह, गा० ३२ । ४. द्रव्यसंग्रह, टीका, गा० ३२, १० ९१ । ५. समयसार, गा० २७० । ६. तत्त्वार्थसूत्र, ८।३ । ७. गोम्मटसार ( कर्मकाण्ड ), गा० ८९।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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