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चौथा अध्याय
बन्ध और मोक्ष (१) बन्ध की अवधारणा और उसकी मीमांसा :
(क) बन्ध का स्वरूप : संसारी आत्मा कर्मों से जकड़ी हुई होने के कारण परतन्त्र है । इसी परतन्त्रता का नाम बन्ध है। भारतीय दर्शन का अनुशीलन करने से ज्ञात होता है कि समस्त भारतीय दार्शनिकों ने संसारी आत्मा के बन्ध की परिकल्पना की है। दो या दो से अधिक पदार्थों का मिल कर विशिष्ट सम्बन्ध को प्राप्त होना या एक हो जाना-बन्ध कहलाता है। उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र के आठवें अध्याय में बन्ध-स्वरूप बतलाते हुए कहा है कि कषाययुक्त जीव के द्वारा कर्मयोग्य पुद्गलों का ग्रहण करना बन्ध है ।२ पूज्यपाद
और अकलंकदेव आदि आचार्यों ने बन्ध-स्वरूप को परिभाषित करते हुए कहा है कि कर्म-प्रदेशों और आत्म-प्रदेशों का परस्पर में दूध और पानी की तरह मिल जाना बन्ध है। जब आत्मा के प्रदेशों से पुद्गल द्रव्य के कर्मयोग्य परमाणु मिल जाते हैं तो आत्मा का अपना स्वरूप एवं शक्ति विकृत हो जाती है । अपनी शक्ति के अनुसार कार्य करने में वह स्वतन्त्र नहीं रहती है । यही उसका बन्ध कहलाता है।
(ख) बन्ध के भेद : अकलंकदेव ने तत्त्वार्थवार्तिक में बन्ध का वर्गीकरण अनेक प्रकार से किया है। सामान्य की अपेक्षा से बन्ध के भेद नहीं किये जा सकते हैं । अतः इस दृष्टि से बन्ध एक ही प्रकार का है। विशेष की अपेक्षा से बन्ध दो प्रकार का है"-(१) द्रव्य-बन्ध और (२) भाव-बन्ध ।
(अ) द्रव्यबन्ध : ज्ञानावरणादि कर्म पुद्गलों के प्रदेशों का जीव के साथ मिलना द्रव्यबन्ध कहलाता है। १. बध्यतेऽनेन बन्धनमात्र वा बन्धः-तत्त्वार्थवार्तिक, १।४।१०, पृ० २६ । २. सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान पुद्गलानादत्ते । स बन्धः ।-तत्त्वार्थसूत्र,
८।२ । ३. (क) सर्वार्थसिद्धि, ११४, पृ० १४; तत्त्वार्थसूत्र, ८।२।
(ख) तत्त्वार्थवार्तिक, १।४।१७, पृ० १६ । ४. तत्त्वार्थवार्तिक, ११७।१४, पृ० ४०, ८।४।१५, पृ० ५६९ । ५. वही, २।१०।२, पृ० १२४ ।। ६. आत्मकर्मणोरन्योऽन्यप्रदेशानुप्रवेशात्मको बन्धः । सर्वार्थसिद्धि, ११४, पृ० १४ ।
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