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२३२ : जैनदर्शन में आत्म-विचार
के द्वारा भी पुनर्जन्म सिद्ध होता है । हैं. और कुछ महान् अज्ञानी होते हैं ।
जन्मजात विलक्षण प्रतिभा से पुनर्जन्म-सिद्धि : जन्मजात विलक्षण प्रतिभा कुछ व्यक्ति अलौकिक प्रतिभा वाले होते इसका कारण यही है कि जिस जीव ने जिस कार्य का पहले के जन्म में अभ्यास किया होता है, वह उस में प्रवीण हो जाता है और अनभ्यस्त आत्मा मूढ़ होती है । इस विषय में सुकरात ( साक्रेटीज़) का कथन उद्धृत करने से उपर्युक्त कथन की पुष्टि हो जाती है । " एक बार प्लेटो ने सुकरात से पूछा कि आप एक सा किन्तु कोई एक बार में, कोई दो बार में और कोई उसे तीन है, कोई उसे अनेक बार में भी नहीं सीख पाता है । क्यों ? सुकरात ने उत्तर दिया कि जिन लोगों ने पहले से ही अभ्यास किया है, उसे जल्दी समझ में आता है और जिन्होंने कम अभ्यास किया है, उन्हें अधिक देर लगती है और जिन्होंने अभी समझना आरम्भ ही किया है उन्हें और भी अधिक देर लगती है ।" साक्रेटीज़ के इस कथन से पुनर्जन्म की सिद्धि होती है ।
सभी विद्यार्थियों को
पाठ पढ़ाते हैं,
बार में सीखता
आत्मा के नित्यत्व से पुनर्जन्म को सिद्धि : भारतीय दार्शनिकों ने आत्मा को नित्य माना है । मृत्यु के बाद शरीर नष्ट हो जाता है लेकिन आत्मा का मृत्यु के बाद भी अस्तित्व रहता है ।" आत्मा के नित्य होने से स्पष्ट है कि वह एक शरीर को छोड़ कर नवीन शरीर को अपने कर्मों के अनुसार धारण करता है, यही पुनर्जन्म कहलाता है । कहा भी :— -" आत्मनित्यत्वे प्रेत्यभावसिद्धि: २ " आचार्य वात्स्यायन ने इस सूत्र की व्याख्या में कहा है “ नित्योऽयमात्मा प्रेति पूर्व शरीरं जहाति प्रियते इति प्रेत्य च पूर्वशरीरं हित्वा भवति जायते शरीरान्तरमुपादत्त इति तच्चैतदुभयं जन्ममरण प्रेत्यभावो वेदितव्या ।" इस प्रकार उपर्युक्त कथन से आत्मा का पुनर्जन्म होना सिद्ध है ।
है
प्रत्यभिज्ञान प्रमाण से पुनर्जन्म - सिद्धान्त की सिद्धि : प्रत्यक्ष और स्मरण का जोड़ रूप ज्ञान प्रत्यभिज्ञान कहलाता है । इस प्रत्यभिज्ञान प्रमाण से पुनर्जन्म सिद्ध होता है । जैन दर्शन में देवों के वर्गीकरण में एक व्यन्तर देवों का भी वर्गीकरण है । यक्ष, राक्षस और भूतादि व्यन्तर देव प्रायः यह कहते हुए सुने जाते हैं कि मैं वहीं हूँ, जो पहले अमुक था । यदि आत्मा का पुनर्जन्म न माना जाए तो
१. देहहं पेक्खिवि जरमरणु मा भउ जीव करेहि ।
जो अजरामरु बंभु परु सो
२. न्यायदर्शन, ४। १ । १० ।
अप्पाणु मुणेहि ॥ परमात्मप्रकाश, १।७१ ।
३. परीक्षामुख, ३।५ ।
४. (क) मृतानां रक्षोयक्षादिकुलेषु स्वयमुत्पन्नत्वेन कथयतां । प्रमेयरत्नमाला, ४।८, पृ० २९६ । (ख) रक्षोदृष्टेर्भवस्मृतेः । वही, पृ० २९७ ।
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