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आत्मा और कर्म विपाक : २३१
पूर्वाभ्यास से ही सम्भव हैं । अतः पूर्वाभ्यास की स्मृति से पुनर्जन्म की सिद्धि होती है । अनन्तवीर्य ने सिद्धिविनिश्चय टीका में इसी तर्क से पुनर्जन्म-सिद्धान्त की सिद्धि की है । जिस प्रकार एक युवक का शरीर शिशु की उत्तरवर्ती अवस्था है, इसी प्रकार शिशु का शरीर पूर्वजन्म के पश्चात् होने वाली अवस्था है । यदि ऐसा न माना जाए तो पूर्वजन्म में भोगे हुए तथा अनुभव किये हुए का स्मरण न होने से तत्काल उत्पन्न प्राणियों में उपर्युक्त भयादि प्रवृत्तियाँ कभी नहीं होगीं । लेकिन उनमें उपर्युक्त प्रवृत्तियाँ होती हैं । अतः पुनर्जन्म की सत्ता है ।
राग-द्वेष की प्रवृत्ति से पुनर्जन्म की सिद्धि : प्राणियों में सांसारिक विषयों के प्रति राग द्वेषात्मक प्रवृत्ति का होना भी पुनर्जन्म को सिद्ध करता है । वात्स्यायन ने अपने भाष्य में इसका विस्तृत विवेचन किया है । "
जीवन स्तर से पुनर्जन्म-सिद्धि : पुनर्जन्म की सिद्धि जीवों के जीवन स्तर से भी होती है । विभिन्न जीवों का न तो समान शरीर, रूप, आयु होती है और न भोगादि के सुख-साधन एक से होते हैं । कोई जन्म से ही अन्धे, बहरे, लूले होते हैं, तो कोई बहुत ही सुन्दर होते हैं । कोई खाने के लिए मुहताज हैं तो कोई दूध मलाई आदि स्वादिष्ट भोजन ही करते हैं । इस प्रकार जीवों में व्याप्त विषमता किसी अदृश्य कारण की ओर संकेत करती है। यह अदृश्य कारण पूर्वजन्म में किये गये कर्मों का फल ही है, जिसे भोगने के लिए दूसरा जन्म लेना पड़ता है । अतः जीवों के जीवन स्तर से पुनर्जन्म सिद्ध होता है ।
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१. ( क ) न्यायसूत्र, ३१।१८ । (ख) तदहर्ज स्तने हातो — प्रमेयरत्नमाला, ४८, पृ० २९७ ।
२. वही, ३।१।२१ ।
३. सिद्धिविनिश्चयटीका, ४।१४, पृ० २८८ ।
४. ( क ) अष्टसहस्री, हिन्दी अनुवाद सहित, पृ० ३५४ ।
(ख) जैनदर्शन : स्वरूप और विश्लेषण, पृ० ४९४ पर उद्धृत ।
५. न्यायदर्शन - वात्स्यायनभाष्य, पृ० ३२६ ।
६. 'लोक में देखा जाता है कि कोई व्यक्ति जन्म से राजकुल में उत्पन्न होने के कारण सुखोपभोग करता है- । इस वैषम्य का कारण पुनर्जन्म के अतिरिक्त अन्य दूसरा क्या हो सकता है' ?- । पं० रंगनाथ पाठक, षड्दर्शनरहस्य, पृ० १३ । (ख) दिगम्बर जैन, वर्ष ६३, अंक १-२, ता० २०-१२१९६९, पृ० १८-१९ । ( ग ) हीरेन्द्रनाथ दत्त : कर्मवाद और जन्मान्तर, पृ० १९६-९९ ।
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