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२३० : जैनदर्शन में आत्म-विचार को विभिन्न योनियों में ले जाता है ।' जब तक जीव मुक्त नहीं हो जाता है, तब तक इस शरीर का विनाश नहीं होता है। कार्मण शरीर अन्य समस्त शरीरों का कारण होता है । इस शरीर के नष्ट होने पर ही जीव का पुनर्जन्म नहीं होता है।
यह पहले लिखा जा चुका है कि कर्मसिद्धान्त के अनुसार एक आनुपूर्वी नामक नामकर्म होता है। यही कर्म जीव को अपने उत्पत्तिस्थान तक उसी प्रकार पहुंचा देता है, जिस प्रकार रज्जु से बंधा हुआ बैल अभीष्ट स्थान पर ले जाया जाता है। आनुपूर्वी कर्म वक्रगति करने वाले जीव की सहायता करता है । कार्मणशरीरयुक्त जीव अभीष्ट जन्म-स्थान पर पहुँचकर औदारिकादि शरीर का स्वयं निर्माण करता है। जैन दर्शन में पुनर्जन्म की यही प्रक्रिया उपलब्ध है। (ग) पुनर्जन्म-साधक प्रमाण :
भारतीय चिन्तकों ने अनेक युक्तियों द्वारा पुनर्जन्म-सिद्धान्त को सिद्ध किया है । वेद, उपनिषद्, स्मृति५, गीता और जैन-बौद्ध साहित्य में वर्णित पुनर्जन्म की घटनाओं से पुनर्जन्म-सिद्धान्त का समर्थन और पुष्टि होती है ।” उक्त साहित्य में पुनर्जन्म साधक निम्नांकित युक्तियाँ उपलब्ध है।
स्मृति द्वारा पुनर्जन्म-सिद्धान्त की सिद्धि : तत्काल उत्पन्न शिशु में हर्ष, भय, शोक, मां का स्तनपान आदि क्रियाओं से पुनर्जन्म-सिद्धान्त की सिद्धि होती है । क्योंकि उसने इस जन्म में हर्षादि का अनुभव नहीं किया है, जबकि ये सब क्रियाएँ
१. तेन कर्मादानं देशान्तरसंक्रमश्च भवति ।-सर्वार्थसिद्धि, २।२५, पृ० १८३ । २. सर्वशरीरप्ररोहण बीजभतं कार्मणं शरीरं कर्मेत्युच्यते ।-वही । ३. ऋग्वेद, १०।५७१५, १११६४, ३०-३१-३२ और ३७ । यजुर्वेद, ३६।३९ । ४. कठोपनिषद्, १।२।६ । मुण्डकोपनिषद्, १।२।९-१० । बृहदारण्यकोपनिषद्,
६।२।८, ४।४।३ । ५. मनुस्मृति, १२।४०, १२१५४९ । ६. गीता, ८।१५-१६ । ४।५ । ७. द्रव्यसंग्रह, टीका : गा० ४२ । ८. (क) वीरनन्दि, चन्द्रप्रभुचरित : प्रशस्ति का अन्तिम श्लोक ।
(ख) आचार्य जिनसेन, आदिपुराण, ८।१९१-२०७ । (ग) उत्तरपुराण, ७१।१६९। (ध) गोम्मटसार ( कर्मकाण्ड ), गा० ५३५४१ ।
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