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आत्मा और कर्म-विपाक : २२९
अनादि काल से कर्मों से संयुक्त आत्मा के द्रव्यकर्मों के कारण राग-द्वेष रूप भाव कर्म (जीव के ऐसे परिणमित भाव जो पुद्गल कर्मणा को द्रव्य कर्म रूप में परिणमित करते हैं) होते हैं। राग-द्वेष रूप से परिणमन करने पर जीव कार्मण वर्गणा में से ऐसे परमाणुओं को आकर्षित करता है, जिनमें कर्मयोग्य बनने की शक्ति होती है और जो द्रव्य कर्म कहलाते हैं । इस प्रकार द्रव्य कर्म से भाव कर्म और भाव कर्म से द्रव्य कर्म आते रहते हैं। इस प्रकार जीव का पुनर्जन्म का चक्र चलता रहता है । आचार्य कुन्दकुन्द ने पंचास्तिकाय में कहा भी है :
इस संसारी जीव के अनादि कर्म-बंध के कारण राग-द्वेष रूप स्निग्ध एवं अशुद्धभाव होते हैं, उन अशुद्ध राग-द्वेष रूप परिणामों के कारण ज्ञानावरणादि रूप आठ द्रव्य कर्मों का बन्ध होता है। इन द्रव्यकर्मों के उदय से जीव नरक, तिर्यच, मनुष्य और देव गतियों को प्राप्त करता है। गतियों में जन्म लेने से शरीर की उपलब्धि होती है और शरीर उपलब्ध होने पर इन्द्रियां होती हैं । इन्द्रियों के होने पर जीव विषय ग्रहण करता है और विषयों को ग्रहण करने से राग-द्वेष उत्पन्न होते हैं । इस प्रकार संसारी जोव कुम्भकार के चक्र की तरह इस संसार में भ्रमण करता रहता है।' कुन्दकुन्द के उपयुक्त कथन से सिद्ध है कि पुनर्जन्म का प्रमुख कारण कर्म और जीव का परिणाम है ।
आचार्य अमृतचन्द्र ने भी कहा है कि यह जीव शरीर में दूध और पानो की तरह मिल कर रहता है तो भी अपने स्वभाव को छोड़कर शरीर रूप नहीं हो जाता है । रागादि भावों सहित होने के कारण यह जीव द्रव्य कर्म रूपी मल से मलिन हो जाने पर मिथ्यात्व रागादि रूप भावकर्मों (अध्यवसायों) तथा द्रव्य कर्मों से रचित अन्य शरीर में प्रविष्ट होता रहता है। इस प्रकार सिद्ध है कि जीव स्वयं शरीरान्तर में जाता है ।२।।
भारतीय चिन्तकों ने जिसे सूक्ष्म शरीर माना है, जैन दर्शन में उसे पांच शरीरों में से एक कार्मण शरीर कहा गया है, जो समस्त अन्य शरीरों की अपेक्षा सूक्ष्म होता है और समस्त संसारी जीवों के होता है । जैन दार्शनिक यह भी मानते हैं कि संसारी जीव की मृत्यु के बाद औदारिकादि समस्त शरीर नष्ट हो जाते हैं, केवल कार्मण शरीर जीव के साथ रहता है । यही कार्मण शरीर जीव १. पंचास्तिकाय, १२८।३० । २. अनादि...."तस्य देहान्तर संचरणकारणोपन्यास इति । टीका :
-पञ्चास्तिकाय, गा० ३४ । ३. 'औदारिकवैक्रियाऽऽहारकतैजसकामणानि शरीराणि । परम्परं सूक्ष्मम् ।'
-तत्त्वार्थसूत्र, २॥३६-७ । 'सर्वस्य'-वही, २।४२ ।
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