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________________ २२८ : जैनदर्शन में आत्म-विचार था । नागसेन के अनुसार नाम-रूप का पुनर्जन्म होता है। राजा मिलिन्द ने नागसेन से पूछा कि कौन उत्पन्न होता है ? क्या वह वही रहता है या अन्य हो जाता है ? नागसेन ने विस्तृत संवाद के बाद बतलाया कि न तो वही उत्पन्न होता है और न अन्य, बल्कि धर्मों के लगातार प्रवाह से, उनके संघात रूप में आ जाने से एक उत्पन्न होता है, दूसरा नष्ट हो जाता है । यह कार्य इतनी तीव्रगति से होता है कि ऐसा प्रतीत होने लगता है कि युगपत् हो रहा है।' इसी बात को स्पष्ट करते हुए 'नामरूपं खो महाराज पीटसन्दहतीति' अर्थात् नाम-रूप जन्म ग्रहण करता है। राजा के यह पूछने पर कि क्या यही नाम-रूप जन्म-ग्रहण करता है ? नागसेन ने उत्तर दिया कि यह नामरूप ही जन्म ग्रहण नहीं करता है, किन्तु यह नाम-रूप शुभ-अशुभ कर्म करता है और उन कर्मों के कारण एक अन्य नाम-रूप उत्पन्न होता है, यही संसरण करता है। राजा की आपत्ति का निराकरण करते हुए भदन्त नागसेन ने कहा कि हे राजन् ! मृत्यु के समय जिसका अन्त होता है, वह तो एक अन्य नाम-रूप होता है और जो पुनर्जन्म ग्रहण करता है, वह एक अन्य किन्तु प्रथम (नाम-रूप) से द्वितीय नाम-रूप निकलता है। अतः हे महाराज धर्म सन्तति ही संसरण करती है। इसी प्रकार विज्ञानाद्वैतवादियों ने भी सन्तति का पुनर्जन्म होना माना है। जैन-चिन्तकों ने भी पुनर्जन्म की व्याख्या एवं प्रक्रिया विस्तृत रूप से की है । जैनागम, पुराण, महाकाव्य, नाटक, स्तोत्र एवं दार्शनिक ग्रन्थादि में पुनर्जन्म सम्बन्धी विवेचन तथा तत्सम्बन्धी कथाओं का उल्लेख मिलता है । जैन विचारकों का मत है कि आत्मा का पर-द्रव्य के साथ संयोग होने पर उसको विभिन्न योनियों में घूमना पड़ता है।" हिंसा, झूठ, चोरी, भब्रह्मचर्य और परिग्रह रूप अशुभ कर्म करने से जीव नरकादि अशुभ और निम्न योनियों में भ्रमण करता है और भहिंसादि शुभ-कर्म करने से जीव मनुष्य, देव आदि योनियों में जन्म लेता है। यह लिख चुके हैं कि आत्मा और कर्म का अनादि काल से सम्बन्ध है, जिसके कारण जीव अनादि काल से आवागमन रूप पुनर्जन्म के चक्र में भ्रमण करता रहता है। १. मिलिन्दप्रश्न, पृ० ४३ । २. वही, पृ० ४३। ३. वही, पृ० ४४। ४. एवमेव खो महाराज धम्मसन्तति सन्दहति ।-वही। ५. अनादिकालसम्म तैः कलङ्कः कश्मलीकृतः। स्वेच्छयार्थोन्समादत्ते स्वतो ऽन्त्यन्तविलक्षणान् ।-ज्ञानार्णव, २१।२२।। ६. रूपाण्येकानि गृहणाति त्यजत्यन्यानि सन्ततम् । यथा रङ्गेऽत्र शैलूषस्तथायं यन्त्रवाहकः । वही, संसारभावना, ८। . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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