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________________ आत्मा और कर्म-विपाक : २२७ अविद्या है। अविद्या का अर्थ है, अज्ञान । अवास्तविक को वास्तविक समझना, अनात्म को आत्म मानना, अविद्या है । अविद्या के कारण संस्कार होते हैं। संस्कार मानसिक वासना भी कहलाते हैं । संस्कार से विज्ञान उत्पन्न होता है। विज्ञान वह चित्तधारा है, जो पूर्वजन्म में कुशल या अकुशल कर्मों के कारण उत्पन्न होती है और जिसके कारण में मनुष्य को आंख, कान आदि विषयक अनुभूति होती है।' विज्ञान के कारण नामरूप उत्पन्न होता है। रूप को नाम और वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान को रूप कहते हैं । मन और शरीर के समूह के लिए नाम-रूप का प्रयोग किया जाता है । नाम-रूप षडायतन को उत्पन्न करता है। पांच इन्द्रियां और मन षडायतन कहलाते हैं । षडायतन स्पर्श का कारण है । इन्द्रिय और विषयों का संयोग स्पर्श है । स्पर्श के कारण वेदना उत्पन्न होती है । पूर्व इन्द्रियानुभूति वेदना कहलाती है । वेदना तृष्णा को उत्पन्न करती है। विषयों के भोगने की लालसा तृष्णा कहलाती है। तृष्णा उपादान को उत्पन्न करता है। सांसारिक विषयों के प्रति आसक्त रहने की लालसा उपादान है । उपादान भव का कारण है । भव का अर्थ है, जन्मग्रहण करने की प्रवृत्ति । भव जाति (पुनर्जन्म) का कारण है और जाति से हो जरा-मरण होता है । इस प्रकार यह पुनर्जन्म का चक्र चलता रहता है । अविद्या और तृष्णायही पुनर्जन्म-चक्र के मुख्य चक्के हैं । बौद्धदर्शन में पुनर्जन्म की यही प्रक्रिया है ।२ अविद्या के नष्ट हो जाने पर पुनर्जन्म होना रुक जाता है । बौद्ध धर्म-दर्शन में यह समस्या उठती है कि पुनर्जन्म किसका होता है ? क्योंकि इस मत में आत्मा, संस्कार सब कुछ अनित्य है। उपर्युक्त समस्या का समाधान प्रतीत्यसमुत्पाद सिद्धान्त के अनुसार किया गया है कि अन्य पुनर्जन्मवादियों की तरह जीवन का विनाश होना ही पुनर्जन्म नहीं है, बल्कि प्राणियों का जीवन क्षण मात्र होने के कारण प्रतिक्षण उसका पुनर्जन्म होता रहता है । एक दीपक से दूसरा दीपक जलाने का अर्थ यही है कि ज्योतियों की एक नयी सन्तान आरम्भ हो गयी है, इसी प्रकार मृत्यु के बाद मृतव्यक्ति का जन्म नहीं होता है, बल्कि उसी संस्कार वाला दूसरा क्षण (व्यक्ति) जन्म ले लेता है । मिलिन्दप्रश्न में नागसेन ने उपर्युक्त समस्या का समाधान उसी प्रकार से किया है जिस प्रकार सांख्य आदि दार्शनिकों ने सूक्ष्म शरीर की कल्पना करके और उसका पुनर्जन्म मान कर किया १. बौद्ध दर्शन तथा अन्य भारतीय दर्शन, पृ० ३९५ । २. भारतीय दर्शन की रूपरेखा, १०.१५० ।। ३. (क) बौद्ध दर्शन तथा अन्य भारतीय दर्शन, पृ० ४८२ । (ख) अभिधम्मत्थसंगहो का हिन्दी अनुवाद, पृ० १६ ।.. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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