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________________ २२६ : जैनदर्शन में आत्म- विचार इस पर भाष्य करते हुए कहा गया है कि जिस प्रकार रंगस्थल पर एक ही व्यक्ति कभी परशुराम, कभी अजातशत्रु और कभी वत्सराज के रूप में दर्शकों को दिखलाई पड़ता है, उसी प्रकार लिङ्ग या सूक्ष्म शरीर भिन्न-भिन्न शरीर ग्रहण करके देवता, मनुष्य, पशु या वनस्पति के रूप में प्रतिभासित होता है । भोग का एक मात्र साधन यही लिङ्ग शरीर है । सांख्य दर्शन में आत्मा व्यापक होने के कारण उस का स्थान परिवर्तन नहीं हो सकता है, इसलिए आत्मा का पुनर्जन्म किस प्रकार होगा ? इस शंका का समाधान करने के लिए सांख्यों को इस सूक्ष्म शरीर की कल्पना करना अनिवार्य हो गया था । न्यायवैशेषिकों ने भी इस प्रश्न का समाधान अणुरूप मन को मान कर किया है । न्यायवैशेषिकों की तरह सांख्य दार्शनिक यह मानते हैं कि आत्मा ( पुरुष ) का पुनर्जन्म नहीं होता है, बल्कि लिङ्ग शरीर (सूक्ष्म शरीर ) का ही पुनर्जन्म होता है ।" आत्मा के मुक्त हो जाने पर वह उससे अलग हो जाता है । मीमांसा दर्शन में न्याय-वैशेषिक की तरह मन को पुनर्जन्म का कारण मान कर पुनर्जन्म सिद्धान्त की व्याख्या की गयी है और वेदान्त दर्शन में सांख्यों की तरह सूक्ष्म शरीर की कल्पना करके पुनर्जन्म का विश्लेषण किया गया है । बौद्ध दर्शन यद्यपि अनात्मवादी दर्शन कहलाता है, लेकिन अन्य भारतीय आत्मवादियों की तरह यह दर्शन भी कर्म और पुनर्जन्म सिद्धान्तों में विश्वास करता है और उनकी तार्किक व्याख्या करता है । पालि-त्रिपिटक का अनुशीलन करने पर परिलक्षित होता है कि अन्य कर्मवादियों की तरह भगवान् बुद्ध ने भी कर्म को पुनर्जन्म का कारण माना है । उनके वचनामृतों के अनुसार कुशल (शुभ) कर्म सुगति का और अकुशल कर्म दुर्गति का कारण है । ३ प्रतीत्यसमुत्पाद सिद्धान्त जिसे भवचक्र कहते हैं, पुनर्जन्म की सम्पूर्ण व्याख्या करता है । इस सिद्धान्तानुसार अविद्या और संस्कार ही हमारे पुनर्जन्म के कारण हैं । भगवान् बुद्ध ने कहा है – “हे भिक्षुओं, चार आर्यसत्यों के प्रतिवेद्य न होने से इस प्रकार दीर्घकाल से मेरा और तुम्हारा यह आवागमन, संसरण हो रहा है....४ ।" इस कथन से भी यही सिद्ध होता है कि पुनर्जन्म का मूल कारण १. भारतीय दर्शन की रूपरेखा, पृ० २९१ । २. कम्मा विपाका वत्तन्ति विपाको कम्म सम्भवो । कम्मा पुनब्भवो होति एवं लोको पवत्ततीति ॥ - बौद्ध दर्शन तथा अन्य भारतीय दर्शन, पृ० ४७८ में उद्धृत । ३. मज्झिमनिकाय, ३१४१५ । ४. दीर्घनिकाय, २|३ | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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