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आत्मा और कर्म-विपाक : २२५ के सांसारिक बन्धन में पड़ने का मूलकारण निश्चय ही उसका मनस् से सम्बन्ध होना है।'
सांख्य-योग दर्शन में भी यह मान्यता है कि जीव अपने शुभाशुभ कर्मों के परिणामस्वरूप अनेक योनियों में भ्रमण करता है। सांख्य-योग चिन्तकों का सिद्धान्त है कि शुभाशुभ कर्म स्थूल शरीर के द्वारा किये जाते हैं, लेकिन वह उन कर्मों के संस्कारों का अधिष्ठाता नहीं है । शुभाशुभ कर्मों के अधिष्ठाता के लिए स्थूल शरीर से भिन्न सूक्ष्म शरीर की कल्पना की गयी है ।३ पांच कर्मेन्द्रिय, पांच ज्ञानेन्द्रिय, पांच तन्मात्राओं, बुद्धि एवं अहंकार से सूक्ष्म शरीर का निर्माण होता है। मृत्यु होने पर स्थूल शरीर नष्ट हो जाता है, किन्तु सूक्ष्म शरीर वर्तमान रहता है । इस सूक्ष्म शरीर को आत्मा का लिंग भी कहते हैं, जो प्रत्येक संसारी पुरुष के साथ रहता है। यही सूक्ष्म शरीर पुनर्जन्म का आधार है। ईश्वरकृष्ण ने सांख्यकारिका में कहा भी है-'संसरति निरुपभोगं भावरधिवासितं लिङ्गम्।' इस कारिका पर भाष्य करते हुए वाचस्पति मिश्र ने कहा है कि 'लिंग शरीर बार-बार स्थूल शरीर को ग्रहण करता है और पूर्वगृहीत शरीरों को छोड़ता रहता है, इसी का नाम संसरण है।' मृत्यु होने पर सूक्ष्म शरीर का नाश नहीं होता है, अपितु आत्मा पुराने स्थूल शरीर को छोड़ कर नवीन स्थूल शरीर में प्रविष्ट हो जाता है। संसार में आत्मा (पुरुष) के अनेक योनियों में भटकने का कारण सूक्ष्म शरीर ही है। जब तक पुरुष (आत्मा) का सूक्ष्म शरीर विनष्ट नहीं होता है, तब तक उसका संसार में गमनागमन होता रहता है । पूर्व जन्म के अनुभव और कर्म के संस्कार लिङ्ग शरीर (सूक्ष्म शरीर) में निहित रहते हैं । लिङ्ग शरीर के निमित्त से पुरुष का प्रकृति के साथ सम्पर्क होने पर जन्म-मरण का चक्र आरम्भ हो जाता है। सांख्यकारिका में कहा भी है :
पुरुषार्थहेतुकमिदं निमित्तनैमित्तिक प्रसङ्गेन । प्रकृतेविभुत्वयोगान्नटवत् व्यवतिष्ठते लिङ्गम् ॥"
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१. भारतीय दर्शन की रूपरेखा, पृ० २३०-३१ ।
द्रष्टव्य-बन्धनिमित्तं मनः-न्यायमंजरी, पृ० ४९९ । २. सांख्यसूत्र, ६।४१ । ३. सांख्यसूत्र, ६।१६ । ४. सांख्यसूत्र, प्रवचन भाष्य, ६।९। ५. सांख्यकारिका, ४०। ६. भारतीय दर्शन की रूपरेखा, पृ० २९१ । ७. सांख्यकारिका, ४२ ।
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