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२२४ : जैनदर्शन में आत्म-विचार
अनादिकाल से कर्म के साथ संयुक्त होने से अशुद्ध है । इस अशुद्धता के कारण आत्मा विभिन्न योनियों यथा ऊंची-नीची गतियों में भ्रमण करता है ।' आत्मा जो भी कर्म करता है, उन कर्मों का फल तो उसको भोगना ही पड़ता है, चाहे इस जन्म में भोगे या पुनर्जन्म में । क्योंकि कर्म बिना फल दिये विनष्ट नहीं होते हैं । कर्म आत्मा का तब तक पीछा नहीं छोड़ते, जब तक जीव को अपने फल का भोग न करा दें । अतः सभी अध्यात्मवादियों ने कर्म को आत्मा के पुनर्जन्म का कारण मान कर उसकी अपने-अपने ढंग से व्याख्या की है ।
इस प्रकार राग-द्वेष को
न्यायदर्शन के अनुसार शुभ-अशुभ कर्म करने से इसके संस्कार आत्मा में पड़ जाते हैं । वैशेषिकों ने पुनर्जन्म की प्रक्रिया की व्याख्या करते हुए कहा है कि राग और द्वेष से धर्म और अधर्म (पुण्य-पाप) की प्रवृत्ति होती है । की प्रवृत्ति सुख-दुःख को उत्पन्न करती है तथा ये सुख-दुःख जीव के उत्पन्न करते हैं । इस प्रकार जन्म-मरण का चक्र चलता रहता है। पं० रंगनाथ पाठक ने भी लिखा है - जब तक धर्माधर्मरूप प्रवृत्तिजन्य संस्कार बना रहेगा, तब तक कर्मफल भोगने के लिए शरीर ग्रहण करना आवश्यक रहता है | शरीरग्रहण करने पर प्रतिकूल वेदनीय होने के कारण बाधनात्मक दुःख का होना अनिवार्य रहता है । मिथ्याज्ञान से दुःखपर्यन्त अविच्छेदन निरन्तर प्रवर्तमान होता है, यही संसार शब्द का वाच्य है । यह घड़ी की तरह निरन्तर अनुवृत्त होता रहता है । प्रवृत्ति ही पुनः आवृत्ति का कारण होती है। महर्षि गौतम के सूत्र से भी यही सिद्ध होता है कि मिथ्याज्ञान से राग-द्वेष आदि दोष उत्पन्न होते हैं । इन दोषों से प्रवृत्ति होती है तथा प्रवृत्ति से जन्म और जन्म से दुःख होता है ।" न्याय-वैशेषिकों का सिद्धान्त है कि आत्मा व्यापक है । धर्माधर्म प्रवृत्तिजन्य संस्कार मन में निहित होते हैं, अतः जब तक आत्मा का मन के साथ सम्बन्ध रहता है तब तक आत्मा का पुनर्जन्म होता रहता है । अतः पुनर्जन्म का प्रमुख कारण आत्मा और मन का सम्बन्ध है । एम० हिरियन्ना ने कहा है, 'आत्मा
संसारसमावण्णो ण
१. सो सव्वणाणदरिसी कम्मरएण णियेणवच्छण्णो । विजगदि सव्वदो सव्वं । समयसार, गा० १६० ।
२. यथा धेनुसहस्रेषु वत्सो विन्दति मातरम् । तथा पूर्वकृतं कर्म कर्तारमनुगच्छति ॥ — - महाभारत शान्तिपर्व, १८१ । १६ ।
३. (क) इच्छाद्वेषपूर्विका धर्माधर्मयोः प्रवृत्तिः - वैशेषिकसूत्र, ६।२।१४ ।
(ख) एम० हिरियन्ना : भारतीय दर्शन की रूपरेखा, पृ० २६२ । ४. षड्दर्शन रहस्य, पृ० १३५ ।
५. दुःखजन्मप्रवृत्तिदोष मिथ्याज्ञानानामुत्तरोत्तरापाये । न्यायसूत्र १।१।२ ।
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