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________________ आत्मा और कर्म विपाक : २२३ व्याख्या की जाए तो उन गुणों का मानव मानकर वंश-परम्परा - सिद्धान्त के आधार पर मनुष्य की इसका परिणाम यह होगा कि जो गुण पूर्वजों में नहीं थे, में अभाव मानना पड़ेगा । मगर ऐसा नहीं होता है । प्रायः देखा जाता है कि जो गुण पूर्वजों में नहीं थे, वे गुण भी मनुष्य में होते हैं । अतः वंश-परम्परासिद्धान्त के आधार पर इस प्रकार के गुणों की व्याख्या करनी कठिन हो जायेगी । ३. इस सिद्धान्त के विरुद्ध तीसरा तर्क यह दिया जाता है कि पुनर्जन्मसिद्धान्त से मनुष्य पारलौकिक जगत् के प्रति चिन्तित हो जाता है । इस आक्षेप को निराधार कहते हुए पुनर्जन्म - सिद्धान्त में विश्वास करने वालों ने कहा है कि यह सिद्धान्त मानव को दूसरे जन्म के प्रति अनुराग रखना नहीं सिखाता है। ४. पुनर्जन्म - सिद्धान्त विरोधियों का एक आक्षेप यह भी है कि पुनर्जन्मसिद्धान्त अवैज्ञानिक है, क्योंकि यह सिद्धान्त कहता है कि वर्तमान जीवन के कर्मों का फल दूसरे जन्म में भोगना पड़ता है जिसका अर्थ यह हुआ कि देवदत्त के कर्मफलों को यज्ञदत्त को भोगना पड़ेगा । अन्य आक्षेपों की तरह यह आक्षेप भी निराधार एवं अतर्क-संगत है, क्योंकि जिस आत्मा ने इस जीवन में कर्म किये हैं, वही आत्मा जन्मान्तरों में अपने कर्मों का फल भोगता है । यह आक्षेप तो तब तर्कसंगत माना जाता, जब इस जन्म की आत्मा और भविष्यत्काल के जन्म की आत्मा अलग-अलग होतो, लेकिन आत्मा का विनाश नहीं होता है, उसकी केवल पर्याय ही बदलती है । अतः उपर्युक्त आक्षेप ठीक नहीं । इस प्रकार सिद्ध है कि पुनर्जन्म - सिद्धान्त यथार्थ, युक्तियुक्त और निर्दोष है । (ख) पुनर्जन्म - प्रक्रिया : पुनर्जन्म विश्वव्यापक तथा भारतीय चिन्तकों का एक प्रमुख विवेच्य विषय है । यह पुनर्जन्म - अस्तित्व की सिद्धि से स्पष्ट है । बड़े-बड़े महर्षियों, मुनियों, दार्शनिकों, धार्मिकों तथा प्रखर तार्किकों ने इस सिद्धान्त पर गम्भीरतापूर्वक चिन्तन कर अपने-अपने ढंग से इसकी व्याख्या की है । भारतीय साहित्य का अनुशीलन करने पर हम पाते हैं कि सभी ने आत्मा को नित्य मान कर उसे शुभ-अशुभ कर्मफलों का कर्त्ता तथा भोक्ता माना है । जैन दार्शनिकों का मत है कि आत्मा १. भारतीय दर्शन की रूपरेखा : प्रो० हरेन्द्रप्रसाद सिन्हा, पृ० २५ । २ . वही, पृ० २५ । ३. पंचास्तिकाय, गा० १७-१८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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