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भूमिका : भारतीय दर्शन में आत्म-तत्त्व : ९
इस प्रकार उपनिषदों में आत्मा को शरीर, प्राण', इन्द्रिय और मन से भिन्न एक चित्स्वरूप कहा गया है ।
कठोपनिषद् में बतलाया गया है कि आत्मा न उत्पन्न होता है, न मरता है, न किसी से उत्पन्न होता है, यह अजन्मा, नित्य, शाश्वत और पुरातन है, शरीर नष्ट हो जाता है किन्तु यह नहीं मरता है। यह अशरीरी, महान् एवं विभु है । यह आत्मा प्रवचनों, तर्क-वितर्क और वेदों को पढ़ने से नहीं मिलता है ।" यह प्रज्ञा द्वारा प्राप्त होता है । कठोपनिषद् में आत्मा को रथी और शरीर को रथ, मन को लगाम, इन्द्रियों को घोड़ा तथा इन्द्रिय-विषयों को मार्ग कहा है । इसी उपनिषद् में आत्मा को इन्द्रियादि से महान् बतलाया है।
बृहदारण्यकोपनिषद् में आत्मा को सर्वप्रिय तत्त्व कहा है। छान्दोग्योपनिषद् में कहा है कि ब्रह्म ज्योति मेरी आत्मा है, वह मेरे हृदय के मध्य में अन्न के दाने से, जौ से, सरसों से, श्यामक से, श्यामक के चावल से भी अणु है । मेरी आत्मा पृथिवी से बड़ी है, इन समस्त लोकों से बड़ी है । कठोपनिषद् में भी कहा है “यह आत्मा अणु से भी अणु, महान् से भी महान् है और हृदय रूपी गुहा में स्थित है।"९ कहीं-कहीं आत्मा को सम्पूर्ण वस्तु में व्यापक बताया गया है। तैत्तिरीयोपनिषद् में कहा है कि आत्मा सम्पूर्ण वस्तु में व्यापक है । नखों के अग्रभाग तक उसी प्रकार प्रविष्ट है जिस प्रकार छूरा नाई की पेटी में और लकड़ी में आग रहती है । __ कहीं-कहीं आत्मा को सर्वव्यापी, सर्वसाक्षी, सर्वज्ञ, सर्वेश्वर, सर्वान्तर, सबका एकायन कहा गया है । अन्यत्र कहा है "आत्मा न चल है, न अचल है, न स्थायी है, न क्षणिक है, न सूक्ष्म है न क्षणिक है । वह सभी द्वन्द्वों से रहित है।" १. प्रश्नोपनिषद्, ३।३ २. केनोपनिषद्, ११४१६ ३. कठोपनिषद्, १।२।१८ ४. वही, १।२।२२ ५. वही, १।२।२३ ६. कठोपनिषद्, ३।१०।६, ६-८ । मु० उ०, ३।२।३ ७. बृहदारण्यकोपनिषद्, २१११५ ८. छान्दोग्योपनिषद्, ३।१४।३ ९. कठोपनिषद्, १।२।२० १०. तैत्तिरीयोपनिषद्, ११४१७ ११. द्रष्टव्य : भारतीय दर्शन : संपादक डा० न० कि० देवराज, (उ० प्र० हिन्दी
ग्रन्थ अकादमी, लखनऊ), पृ० ५६
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