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________________ ८ : जैनदर्शन में आत्म-विचार रहित है । सत्य काम और सत्य संकल्प आत्मा को जानना और खोजना चाहिए ।" प्रजापति ने इन्द्र को लम्बे वार्तालाप' में जो आत्म-स्वरूप का उपदेश दिया उससे एक ओर तो आत्म-स्वरूप के क्रमिक विकास पर प्रकाश पड़ता है और दूसरी ओर यह भी सिद्ध हो जाता है कि आत्मा ऐसा तत्त्व है जो जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति आदि अवस्थाओं में रहता है । बृहदारण्यकोपनिषद् में भी आत्मा को कर्ता तथा जाग्रतादि अवस्थाओं, मृत्यु और पुनर्जन्म में एक समान रहने वाला तत्त्व कहा है । प्रजापति उपदेश देते हैं कि "शरीर विनाशशील है, शरीर आत्मा नहीं है, शरीर आत्मा का अधिष्ठान है । आत्मा अशरीरी, अमर एवं शरीर से भिन्न है । नेत्रों की पुतलियों में जो पुरुष दृष्टिगत होता है यह वही है किन्तु आँख स्वयं देखने का साधनमात्र है । जो सोचता है कि मैं इसे सूघूँ वह विचार करने वाला आत्मा है, लेकिन घ्राण तो गन्धादि का मात्र है ।" इसी प्रकार आत्मा को मन किया गया है । अनुभव करने का साधन और कल्पनाओं से भिन्न प्रतिपादित Must foषद् में कहा गया है कि 'चन्द्रमा और सूर्य इसके चक्षु, अन्तरिक्ष और दिशाएँ इसके श्रोत्र और वायु इसका उच्छ्वास है ।' छान्दोग्योपनिषद् में भी इसी प्रकार का विवेचन उपलब्ध होता है । बृहदारण्यक में कहा गया है कि "श्वास लेते समय इसे श्वास, बोलते समय बोली, देखते समय आँख, सुनते समय-कान और विचारते समय इसे मानस नाम दिया जाता है । ये सब संज्ञाएँ इसी के भिन्न-भिन्न कार्यों के लिए दी जाती हैं । इसी उपनिषद् में यह भी कहा गया है कि "यह आत्मा जो यह भी नहीं, वह भी नहीं, और न ही कुछ है, अमूर्त एवं अनुभवातीत है, क्योंकि यह पकड़ में नहीं आ सकती है।" १. छान्दोग्योपनिषद्, ८७४, ८।११।२ २. बृहदारण्यकोपनिषद्, ४१४१३ ३. छान्दोग्योपनिषद्, ८।१२।१-२ ४. वही, ८।१२।३-५ ५. मुण्डकोपनिषद् १।१ ६. छान्दोग्योपनिषद्, ३।१३।७ ७. बृहदारण्यकोपनिषद्, ३।७।३, ४।४।२२ ८. मैत्राण्युनिषद् २।३।४ Jain Education International , For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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