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भूमिका : भारतीय दर्शन में आत्म-तत्त्व : ७ अकेले ब्राह्मण सिद्धान्तों की उन्नति का परिणाम नहीं है, अब्राह्मण विचारों ने अवश्य ही उपनिषद्-सिद्धान्तों का प्रारम्भ किया है अथवा उनकी उपज और निर्माण में फलित सहायता प्रदान की है।"
पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री ने जैन साहित्य इतिहास की पूर्वपीठिका में लिखा है कि जैसे ब्राह्मण काल में यज्ञों की तूती बोलती थी वैसे ही उपनिषद् काल में यह स्थान आत्मविद्या ने ले लिया था और ऋषि लोग उसके जानने के लिए क्षत्रियों का शिष्यत्व तक स्वीकार करते थे।
(ग) उपनिषदों में आत्मा-सम्बन्धी विचारों के विविध रूप
उपनिषदों के अनुशीलन से ज्ञात होता है कि उपनिषदों में आत्मा सम्बन्धी विचार एक प्रकार के नहीं हैं । उनमें विभिन्नता है । वेदों में जिस तत्त्व को प्राण, श्वास अथवा किसी वस्तु का सार रूप समझा जाता था, उपनिषदों में वही तत्त्व मानवीय स्वरूप के अर्थों में प्रयुक्त हुआ परिलक्षित होता है ।
डा० राधाकृष्णन ने लिखा है "ऋग्वेद में (१०.१६. ३) इसका अर्थ प्राण अथवा जीवनाधार (आध्यात्मिक सत्व) बताया गया है। शनैः-शनैः आगे चल कर इसका अर्थ आत्मा अथवा अहं हो गया ।"
आत्मा का स्वरूप छान्दोग्योपनिषद्' में प्रजापति के शब्दों में "आत्मा वह है जो पाप से निर्लिप्त जरा, मरण और शोक से रहित, भूख और प्यास से
1. ...from the frequent episodes in the Upanisads in
which the Brahmins are described as having gone to the Ksattriyas for the highest knowledge of Philosophy as well as from the disparateness of the Upanisad teachings from that of the general doctrines of the brahamans and from the allusions to the existence of the philosophical speculations amongst the people in Pali works, it may be inferred that among the Ksattriyas in general there existed earnest philosophic enquiries which must be regarded as having exerted an important influence in the formation of the Upanisad doctrines.-History of Indian Philosophy : S.N.Das Gupta,
vol. 1, p. 31. २. जैन साहित्य का इतिहास : पूर्व पीठिका, पृ० ८ । ३. भारतीयदर्शन, भाग १ : डा० राधाकृष्णन्, पृ० १३८ ४. छान्दोग्योपनिषद्, ८1७।१
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