SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 21
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६ : जैनदर्शन में आत्म-विचार . विद्या आपके पहले किसी भी ब्राह्मण को ज्ञात नहीं थी। इसलिए सम्पूर्ण लोकों में क्षत्रियों का राज्य रहा। (५) छान्दोग्योपनिषद् में एक अन्य उपाख्यान आया है कि प्राचीन शाल, प्रयत्यज्ञ, इन्द्रद्युम्न, जन और बुडिल महाश्रोत्रिय आपस में सोचने लगे कि आत्मा और ब्रह्म क्या है ? यह जानने के लिए वे उद्दालक के पास गये । उद्दालक ने उन्हें बताया कि मैं वैश्वानर आत्मा को नहीं जानता हूँ, अश्वपति नामक कैकय देश का राजा वैश्वानर आत्मा का अध्ययन करता है, इसलिए चलो उसी के पास हमलोग चलें । वहाँ पहुँचने पर अश्वपति ने उन सबका स्वागत करके धन देने की जिज्ञासा प्रकट की, लेकिन उन महाश्रोत्रियों ने कहा कि हम लोग धन लेने नहीं आये हैं। हम सब वैश्वानर आत्मा को जानना चाहते हैं, इसलिए उसी का उपदेश दीजिए। दूसरे दिन राजा अश्वपति के पास वे श्रोत्रिय ब्राह्मण समिधा लेकर गये। राजा कैकय ने उन्हें उपनयन किये बिना आत्मा का उपदेश दिया। शतपथ ब्राह्मण में भी यही कथानक उपलब्ध है । इन उपाख्यानों से स्पष्ट है कि क्षत्रिय आत्म-तत्त्व के वेत्ता थे और ब्राह्मण ऋषि-मुनि उनके पास ज्ञान के लिए शिष्यत्व भाव से जाते थे । डा० दास गुप्ता ने लिखा है, "उपनिषदों में बार-बार आने वाले संवादों से स्पष्ट है कि ब्राह्मण दर्शन के उच्च ज्ञान के लिए क्षत्रियों के पास जाते थे। ब्राह्मण ग्रन्थों के साधारण सिद्धान्तों के साथ उपनिषदों की शिक्षाओं का मेल न होने से और पालि त्रिपिटकों में आये हुए जनसाधारण में दार्शनिक सिद्धान्तों के अस्तित्व की सूचना से यह अनुमान किया जा सकता है कि साधारण क्षत्रियों में गम्भीर दार्शनिक अन्वेषण की प्रवृत्ति थी, जिसने उपनिषदों के सिद्धान्तों के निर्माण में प्रमुख प्रभाव डाला। अतः यह सम्भव है कि यद्यपि उपनिषद् ब्राह्मणों के साथ सम्बद्ध हैं किन्तु उनकी उपज १. तं होवाच । यथा मा त्वं गौतमावदः । यथेयं न प्राक् त्वत्तः पुरा विद्या ब्राह्मणान्गच्छति । तस्मादु सर्वेषु लोकेषु क्षत्रस्यैव प्रशासनमभूदिति । तस्मै होवाच ।। छान्दोग्योपनिषद्, ५।३७ २. वही, ५।१११ ३. तान्होवाच । अश्वपति भगवन्तोऽयं कैकेयः संप्रतीममात्मानं वैश्वानरमध्येति । तं हन्ताभ्यागच्छामेति । तं हाभ्याजग्मुः ।।-वही, ५।११।४ ४. मेवेमं वैश्वानरं संप्रत्यध्येषि । तमेव नो ब्रहीति ॥-वही, ५११११६ ५. वही, ५।१२।१८ ६. वही, १०।६।१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy