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________________ भूमिका : भारतीय दर्शन में आत्म-तत्त्व : ५ (३) छान्दोग्योपनिषद् में भी यह उपदेश उपलब्ध है। छान्दोग्योपनिषद् में कहा गया है कि आत्म-तत्त्व ही एक ऐसा तत्त्व है जिसके ज्ञान के बिना समस्त ज्ञान एवं विद्याएँ व्यर्थ हो जाती हैं। नारद सनत्कुमार से कहता है कि मैं (नारद) चारों वेद, इतिहास, पुराण, गणित-और सर्पादि विद्याओं का ज्ञाता हूँ, फिर भी मैं शोकाकुल हूँ, क्योंकि मैं आत्म-तत्त्व को नहीं जानता हूँ। शोक से मुक्त होने के लिए वह सनत्कुमार से प्रार्थना करता है। सनत्कुमार आत्म-स्वरूप का उपदेश देकर उसे शोकरहित कर देता है । (४) एक अन्य प्रसंग में बताया गया है कि अरुण का पुत्र श्वेतकेतु एक बार पंचाल देश के क्षत्रियों की समिति में आया । प्रवाहण जैबलि ने उससे पूछा क्या तुमने अपने पिता से शिक्षा प्राप्त की है। श्वेतकेतु द्वारा स्वीकारात्मक उत्तर दिये जाने पर प्रवाहण जैबलि ने उससे निम्नांकित पाँच प्रश्न (क) मनुष्य यहाँ से मर कर कहां जाता है ? (ख) प्राणी वापिस किस प्रकार जाते हैं ? (ग) देवयान और पितृयान के मार्ग किस स्थान से अलग-अलग होते हैं ? (घ) यह लोक प्राणियों से भरता क्यों नहीं ? (ङ) जल पांचवी आहुति दिये जाने पर किस प्रकार मनुष्य की वाणी में बोलने लगता है ? ___श्वेतकेतु ने इन प्रश्नों के विषय में अपनी अनभिज्ञता प्रकट की। पिता के पास आकर उसने इन प्रश्नों का उत्तर पूछा । श्वेतकेतु के पिता ने कहा कि इन प्रश्नों का उत्तर मैं भी नहीं जानता हूँ। गौतम गोत्रीय ऋषि श्वेतकेतु के पिता अपने पुत्र के साथ प्रवाहण राजा के पास गये। जब राजा ने अपार धन-सम्पत्ति देने की इच्छा प्रकट की तो गौतम ऋषि ने कहा कि मैं धन-सम्पत्ति लेने नहीं आया हूँ। आपने जो पाँच प्रश्न मेरे पुत्र से पूछे उनका उत्तर जानने आया हूँ, उसी का मुझे उपदेश दीजिए। राजा प्रवाहण ने काफी सोच-विचार कर गम्भीरतापूर्वक कहा कि गौतम ! आप जिस विद्या को जानना चाहते हैं, वह १. छान्दोग्योपनिषद् ८॥१११-२ २. वही, ८।१२, ७।१।३-५ एवं १६ ३. वही, ५।३।१ ४. वही, ५।३।३ ५. स ह गौतमो राज्ञोऽर्धमेयाय । तस्मै ह प्राप्तायञ्चिकार । यामेव कुमारस्यान्ते वाचमभाषथास्तामेव मे बहीति ।।-वही, ५।३।६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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