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________________ ४ : जैनदर्शन में आत्म-विचार के पुत्र नचिकेता के द्वारा आत्म-तत्त्व जानने की इच्छा प्रकट करने पर यम संसार की अनन्त विभूतियों को देकर उसे आत्मा सम्बन्धी प्रश्न से विरत करना चाहता है और नचिकेता को बताता है कि इस विषय में देवताओं को भी जिज्ञासा हुई थी। वे भी इसे नहीं जान सके हैं। नचिकेता यम द्वारा प्रदत्त समस्त सांसारिक सम्पत्तियों को ठुकरा देता है और आत्मा को जानने की उसकी जिज्ञासा और भी प्रबल हो जाती है ।४ अन्त में यम को आत्म-स्वरूप का प्रतिपादन करना पड़ता है । (२) बृहदारण्यक उपनिषद् में मैत्रेयी और याज्ञवल्क्य का लम्बा उपाख्यान आया है । उसका संक्षिप्तसार यह है कि मैत्रेयी याज्ञवल्क्य से कहती है कि जिन सांसारिक विभूतियों से मैं अमृत नहीं होती, उन्हें लेकर मैं क्या करूँ ? जिससे अमृत बन सकूँ उसी का उपदेश दीजिए । अन्त में याज्ञवल्क्य मैत्रेयी को आत्मा सम्बन्धी उपदेश देता है कि आत्मा ही दर्शनीय है, श्रवणीय है, मननीय और ध्यान करने योग्य है। १. येयं प्रेते विचिकित्सा मनुष्येऽस्तीत्येके नायमस्तीति चैके । एतद्विद्यामनुशिष्टस्त्वयाऽहं दराणामेष वरस्तृतीयः ॥ कठोपनिषद्, ११२० २. शतायुषः पुत्रपौत्रान्वृणीष्व बहून्पशून्हस्तिहिरण्यमश्वान् । भूमेर्महदायतनं वृणीष्व स्वयं च जीव शरदो यावदिच्छसि ॥ एतत्तुल्यं यदि मन्यसे वरं वृणीष्व वित्तं चिरजीविकां च । महाभूमौ नचिकेतस्त्वमेधि कामानां त्वा कामभाजें करोमि ।। ये ये कामा दुर्लभा मर्त्यलोके सर्वान्कामांश्छन्दतः प्रार्थयस्व । इमा रामाः सरथाः सतूर्या न हीदृशा लम्भनीया मनुष्यैः । आभिर्मत्प्रत्ताभिः परिचारयस्व नचिकेतो मरणं माऽनुप्राक्षीः ॥ -वही, ११२३-२५ ३. देवैरत्रापि विचिकित्सितं पुरा न हि सुज्ञेयमणुरेष धर्मः।-वही, ११२१ ४. देवैरत्रापि विचिकित्सितं किल त्वं च मत्यो यन्न सुज्ञेयमात्थ । वक्ता चास्य त्वादृगन्यो न लभ्यो नान्यो वरस्तुल्य एतस्य कश्चित् ।। --वही, ११२२ । और भी देखें १।२६-२९ ५. वही, २०१८ ६. बहदारण्यकोपनिषद्० २।४।१-३ ७. आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यो मैत्रेय्यात्मनो वा अरे दर्शनेन श्रवणेन मत्या विज्ञानेनेदं सर्व विदितम् ।-वही, २४५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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